सोमवार, 22 नवंबर 2010

खुशियाँ

आजीवन
खुशिओं की तलाश में रहते है हम
समृधि में ही खुशिओं को तलाशते है हम
रोज एक नया लक्ष्य बनाते है
उनके प्राप्ति के उपरांत खुशियाँ मनाते है हम
पर पुनः एक नए लक्ष्य की चाह
उन खुशिओं को छणिक बना देती है
सागर क़े करीब ही प्यास का
अहसास करा देती है
पुनः जीवन में वही नीरसता खालीपन
और उतकाहट भर देती है
जहाँ से प्रारंभ किया होता है सफ़र
फिर वही पंहुचा देती है
पुनः एक सच्ची खुसी की चाहत
बेचैन बना देती है
वैसे भी एक भ्रम
पाले हुए है हम
की जितना वैभव और सुविधा जुटायेगे हम
उतना ही संपन्न सुखमय और खुशियों से
भरा जीवन बितायेगे हम
जबकि सच्चाई है ये
उतना ही परेशां होते है हम
अपने वैभव और स्वार्थ को पूरा करने हेतु
अनेक अनचाहे और असामाजिक कदम उठाकर
स्वयं आत्मग्लानी में हो रत
दुसरे को दुःख देते है हम
तभी तो पश्चिम के देश तमाम शानो शौकत
और वैभव के उपरांत भी रहते है उदास
आज भी उनको रहती है सच्चे सुख
और खुशिओं की तलाश
जिनकी खोज में उन्हें भाते है
हमारे अध्यात्मिक फूलों और
समृधि संस्कृति के विरासत के पलाश
पंचंत्र की छोटी सी कहानी
कर देती है दूध का दूध
और पानी का पानी
एक योगी हरिद्वार के गंगातट पर
अपने लक्ष्य हेतु तल्लीन
तप में लीन
अपनी छुदा हेतु कर रहा था भिक्षाटन
उसके पास आकर रुका नगरसेठ का टमटम
सेठ ने कहा अरे करो कुछ उद्योग
इससे फिर क्या होगा योग
कमाओगे पैसा ढेर सारा
फिर क्या करूँगा मैं किस्मत का मारा
कर लेना विवाह लेकर एक अच्छा घर
होगा क्या पर
घर में कूलर पंखा और टीवी लगवा लेना
खूब बढ़िया बिस्तर सजवा लेना
और ठाठ से बिस्तर पर लेटकर टीवी देखना
जीवन का मौज लेना
योगी ने kaha छान भर के लिए शुन्य में निहार
मैं तो उससे भी अच्छा कर रहा हूँ बिहार
जो इतना जतन के बाद पता
उससे कही ज्यादा मैं संतोष से कमाता
बिना इतना तत्मजाल किये
ठाठ से घाट पर रह रहा हूँ
आसमान को बना छत तारो की तन चादर
जमीन का बना बिस्तर खुशियों की भरी गागर
लिए अंतरीक्ष की टीवी देखता हूँ
दूर ही रहो ई सेठ
मैं अपने को तुमसे कही ज्यादा ही खुश पाता हूँ
सारांश
आधुनिक बाजारवाद ने बेशक
कम कर दी है दिलो की दूरियां
पर सत्य ये भी है की अन्तरंग संबंधो में
अब नहीं रही वो नजदीकियां
वस्तुतः इसने हमारे तमाम प्राचीन
मूल्यों को कर दिया है ध्वस्त
साथ में हमें किया है पस्त
हमें है गिला
की इन ध्वस्त मूल्यों का हमें कोई
विकल्प नहीं मिला
छीन कर हमारी खुशियाँ और चैन
हमको हद से ज्यादा कर दिया है बेचैन
दिनभर की भाग्दौर के बाद भी हम
अपने आपको खली हाथ पाते है
बेशक कमा लेते है मनचाहा पैसा
पर शरीर को रोगों का घर बना लेते है
तमाम खुशियों की चाह में
स्वयं को भुला बैठते है
रिश्तो को भी तार तार करने मैं
संकोच नहीं करते है
जब उन खुशियों को भोगने का समय आता है
शारीर साथ छोड़ जाता है
अस्तु इसबात को जाने
अपने अप को पहचाने
ख़ुशी अंतर्चेतना से जुडी होती है
अपने मन के भीतर बसी होती है
खुश होता है चित्रकार अपनी सुन्दरतम कृति पर
तो संगीतकार अपनी बेहतरीन धुन पर
सेठ अपनी माया पर
तो यौवना अपनी सुन्दर काया पर
खुश होता है कवी अपनी सुन्दर तम कविता पर
तो गंगा अपनी सविता पर
निर्पेक्ष्य सत्य ये है की दुसरे के चहरे पर
मुस्कराहट देने से जो ख़ुशी मिलती है
तमाम खुशियों से बड़ी होती है
ख़ुशी महत्वाकंछओं का नहीं है हनन
हाँ बेशक है इक्छओं का परिसीमन
कर्मयोग की परिधि में संतोष जैसे
मानवीय मूल्यों का है मूल्याकन
भूल होगी की ख़ुशी को वैभव
और विलास क़े राह पर देखा जॉय
अच्छा है मन की बातें ही
ख़ुशी का सबब बन जाये
जरूरत है उन्हें पहचानने
व अहसास करने की
तो निर्मेश देर किस बात की
आओ खुशियों से इस संसार को भर दे
अपने एक एक कतरे से कर परोपकार
इस धरा को उपवन कर दे ।

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

मैंने दीपावली मना लिया

नित्य की भाँती
काशी के महाश्मसन की सिदियों से चदता
खानाबदोश की तरह

जीवन मरण की गुत्थियों से उलझता

पुनः सुलझाता

अंतस्तल में अंतर्द्वान्द्वा के दिए को जलाता बुझाता

गलियों से गुजरने को उद्यत

संभवतः रात्रि का द्वितीय पहर

आतिशबाजियों से पटा सन्नाटे को चीरता शहर

पास में मरघट

अपने अभीष्ट को साधता तांत्रिको का जमघट

कुल मिलकर समवेत में कह सकते है

हास्य और रुदन का मिश्रित स्वर

जीवन मरण का अद्भुत संगम

एक ओर घाट के ऊपर खुशियाँ जहा ले रही थी अग्डैया

सजी चहुँ ओर दीपो की लडिया

आधुनिक झालर और बत्तियां

वही दूसरी ओर गली के एक माकान में

दिखी कुछ स्याह परछियाँ

ध्यान से देखने पर पाया

मकान पर वृध्हाश्रम था लिखा

खिडकियों से झाकती दिखी

कुछ बुदी कातर और याचक निगाहें

झुकी कमर और कमजोर बाहें

उत्सुक्तावास अन्दर मैं प्रविष्ट हुआ

ख़ुशी के इस मौके पर मुझे देख

उनके अन्दर हुआ आशा का संचार

उनको लगा हूँ मैं कोई तारणहार

जो आया है उनके जीवन में

दीपावली की निशा में रौशनी जलाने

पर देख मेरे हाथ खाली

उनकी सोच लग गयी ठिकाने

मैं एकटक उनके बारे में अपनी उपयोगिता सोचता रहा

उनके लिए अपना अर्थ ढूढता रहा

उन किस्मत की मारी मों के बीच अपनी माँ को ढूढता रहा

जेब में मोबाइल लगातार घनघना रहा था

शायद घर से फोन आ रहा था

मनाने को त्यौहार

छोड़ने को पठाखे और अनार

कर उसे मैं स्विच ऑफ

उनके करीब बैठ गया लेकर लिहाफ

वस्तुतः मैं महाकाल के दर्शन के लिए आया था

इसीलिए विशेष कुछ साथ नहीं लाया था

चल्पदा उनसे बातों का दौर

टूटने लगा उनका मौन

कुछ ने अपनी व्यथा बेबाक सुनाई

अपने बहू बेटियों की बातें बताई

कुछ से उनके परिवार उनकी चेष्टाओं और उनके प्रति

उनके कर्तव्यों के बारे में पूछता रहा

घंटो उनके कष्टों से दो चार होता रहा

उनकी मौनता और उनके आसुओं में प्रतिउत्तर पता रहा

मैंने कहा माते ये कैसी है विवशता

चाह कर भी इन आँखों से आंसू नहीं है निकलता

देख ऐसी विपन्नता

शायद ये सूख चुके है

अपना मायने खो चुके है

हो गया है क्या इस आज की पिदी को

जीने पर चढ़ कर जो तोड़ती है सीदी को

क्यों परिचित नहीं वो इन बातो से

स्तन में दूध न होने पर भी लगाई रही होगी उन्हें अपने तन से

शायद कई बार दूध के बदले में स्तनों से रक्त भी रिसता रहा हो

अपने उस रक्त को भी उतने ही प्रेम से श्रद्धा व स्नेह से

बिना दर्द के जिसने उन्हें पिलाया हो

पर शायद ही कभी उन्हें अपने से दूर किया हो

जिस माँ ने उन्हें अपने रक्त मिश्रित दूध से सीचा है

उन्हें क्यों इन्होने अपने जीवन से उलीचा है

सिहर गया तन

हा हकार कर उठा मन

मैंने अपने अप को संभालने का किया प्रयास

क्यों टूटते दिख रहे सब आस

चारो और देख अत्म्रता स्वार्थपरता

यद् आती हमें बरबस जीवनमूल्यों से युक्त

अपने अतीत की सम्पन्नता

मै जानता था

उन्हें मै भी दे पाउँगा नहीं सिवाय

मीठे कुछ सहानुभूति के बोल

अशई मन से अपनी जेबे रहा था टटोल

चाँद रुपयों ने मेरी लाज बचाई

मैंने कहा माई

रख ले इसे आप आज

कल होगा कुछ साधनों के साथ पुनः मिलाप

देखता हु मै आपके घाओं पर कितना मलहम लगा पता हूँ

क्योकि मै अक्सर अपने विचारों को किये आत्मसात

सिमित संसाधनों के साथ

स्वयं को नितांत अकेला पाता हूँ

बुदी आखों के झरझर

आंसुओं ने मुझे किया विदा

मुझे लगा मैंने

दीपावली मना लिया

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

लो देख लो मेरी दुनिया

घर लौटने पर
छोटू ने सुनाया
ताई के फोन
आने की बात बताया
भैया बहुत बीमार है
तुरंत कानपुर है बुलाया
मैंने सोचा
भैया के चार बच्चे
सभी व्यवस्थित
लेकर पद अच्छे
ऐसे में मैं कहाँ से भाया
जेहन में सारा
अतीत नजर आया
की किस तरह भैया ने बच्चो के
शिक्षा दीक्षा की दे दुहाई
अम्मा बापू परिवार व
गाँव को ठुकराया
अपने पारिवारिक सामाजिक
जिम्मेदारियों से मुख मोड़ कर
कानपुर में एक आलीशान
मकान बनवाया
घर और गाँव को एकदम
से ही भुलाया
मुझे याद है बापू की तेरहवी के लिए भी
बड़ी मिन्नत के बाद समय निकाला
खैर बिना रुके शाम के ट्रेन से ही
मैंने कानपुर का किया रुख
वहां काप गया
देखकर भैया भाभी का दुःख
रुग्ण जर्जर और अशक्त भैया की
एक लम्बे अंतराल के बाद
मुझे देख बाछे खिल गयी
मानो जिसकी हो प्रतीक्षा
वो चीज मिल गयी
मै भी मूर्तिवत भैया के गले लग गया
अविरल आसुओं की धार
कोरो से बह चली
मैं यंत्रवत सोचता रहा
हैरान होकर कभी भैया
कभी भाभी को देखता रहा
भाभी को आंचल से अपने आसुओं को
पोछने की असफल चेष्टा को
अनदेखा करता रहा
भैया इ क्या हाल बना रखा है
कहते जब मैंने उनकी गोद में
अपना सर रखा
बापू को भैया के रूप में
मानो जीवित देखा
स्नेह से जब सर में मेरे वो उगलिया फिराने लगे
उनकी गोद में अमरुद और आम के
पेड़ों का बचपन देखा
सयंत होकर मैंने पूछा
विनोद अंकुर और मुन्ना हैं कहाँ
अभी तक आई नहीं क्यों मुनिया
भैया ने दो तिन छोटे पार्सल
और कुछ चिट्ठियां मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा
लो देख लो मेरी दुनिया
कापते हाथो से मै एक एक पत्र पढने लगा
विनोद ने लिखा
कार्यालयी कार्य से बाहर जा रहा हूँ
आपके बताये कर्मयोग के रस्ते पर चल रहा हूँ
कुछ रुपये भेज रहा हूँ
साथ में आपके स्वस्थ होने की कामना कर रहा हूँ
अंकुर ने भी अपनी असमर्थता कुछ इस तरह सुनाई
नेहा के परीक्षा की बात बताई
आगे लिखा पापा हम आ नहीं सकते
आपको है गुड विशेश भेजते
आगे का हाल भेजिएगा
कोई जरूरत हो तो निसंकोच कहियेगा
मुन्ना की व्यथा भी इनसे अलग नहीं थी
हम तो आने के लिए रहे ही थे सोच
अचानक मंजू के पैर में आ गयी मोच
कुछ रुपये भेज रहा हूँ
अंकुर को फोन कर रहा हूँ
उम्मीद है आप जल्द ठीक हो जायेगे
हम पुनः अच्छी खबर पाएंगे
मुनिया ने अपने पत्र में
अपने पति के ट्रान्सफर का दे हवाला
आने से ही कर लिया किनारा
मैं अपने को सँभालने का
करने लगा असफल प्रयास
धुम से बिस्तर पर बैठ
सोचने लगा कैसी होती है आस
सारा संसार मुझे घूमता नजर आया
लगा इतना खोने के बाद
भैया ने क्या पाया
भरी आँखों से भैया ने कहा
परिवार क्या होता है ये आज मैं जान पाया
पर सच जो मैंने बोया वही तो है पाया
भाभी ने कहा लल्ला
क्या करे बेटों की भी है
अपनी अपनी मज़बूरी
वर्ना है ही क्या ये दूरी
एक ओर जहा भैया के अन्दर
पश्चाताप के आंसू पा रहा
वही भाभी को आज भी
जहा का तहा पा रहा
मन अजीब अंतर्द्वान्दा में फस गया
जमाना आज की दस्ता कह गया
तभी भैया ने रखा मेरे सर पर अपना हाथ
निरीह नजरो से कहा
निर्मेश चाहिए तुम्हारा साथ
मुझे अपने वर्तमान पर
बेहद तरस आया
तुलना करने पर
अपने अतीत को बेहतर पाया