शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

मुखरित मौन सन्देश प्रकृति का नूतन वर्षाभिनंदन

नूतन ऊष्मा से ओत प्रोत
नवल श्रृष्टि का पोर पोर
नए वर्ष कि पूर्व साँझ में
झंकृत हिय का कोर कोर

नूतन सुषमा से वासित तन
होता अनुरागी वैरागी मन
धरा धन्य धनो से पूरित
आराधनारत एक एक कण

अनुपम अक्षय अनंत उर्जा के
अनिद्य स्रोत से पूरित अन्तस्तल
मुखरित मौन सन्देश प्रकृति का
दे रही सृष्टि को जीवन पल पल

हरा भरा भूभाग बड़ा
मरकत मणि सी मोहक वीणा
शुभ्र शरद की धवल चांदनी
अमृत वर्षं झीना झीना

शीतल शीत कि शीतल धूप
हारती हर तन का हर क्लेश
कलकल करती निर्झर निश्छल
हरती सुरसरि अवसाद शेष

है माँ का ह्रदय क्षीरसागर
ह्रदय पिता का न्यारा बैकुंठ
है ह्रदय गुरु का ज्ञान रथ
आओ करे आत्मसात आकंठ

कल तक अनल उगलती अवनी
पर्याय पियूष का बनी आज है
प्रज्ञा पूरित पूरा परिपथ
ऐसी मातृभूमि पर हमें नाज है

गिरिराज सुशोभित मस्तक पर
है पखारता सिन्धु पाव है
नूतन तृष्णा से नित घिरा शहर
पर सागर सा शांत गाँव है

है बनी राष्ट्र कि हिय रेखा
गंगा का अविरल प्रवाह
दुग्ध श्वेत से पोत युगल
बने शांति के आज भी गवाह

परम दिव्य अत्यंत भव्य है
सिद्धांत सत्य अहिंसा का
असमय आतुर बने विनाश के
क्यों उद्यत प्रलय आलिंगन का

मातृभूमि पारस सी मेरी
दानव पा सानिध्य देव हो जाते
दग्ध हृदय के दाहक शूल
सुरभित सरस सुमन बन जाते

है रहा इतिहास हमारा
संहारक शिव ने कर गरल पान
बन गए स्वयं भी नीलकंठ
दे दिया सृष्टि को अभयदान

हूँ परिचित अधरों कि भाषा से
नाहक बुनते तुम शब्दजाल हो
चलो आज ही लो नूतन संकल्प
बचे अभी तुम बाल बाल हो

शाश्वत मूल्यों कि प्राण प्रतिष्ठा
ज्यों तपती रेत में नीर धाम
निर्माण करे ऐसे भुवन का
जहाँ ह्रिदय प्रेम का दिव्य ग्राम

जिज्ञासा का भर ज्ञान कुम्भ
सुविचारों का नन्दन कानन
निलय धरा के संगम पर
कर रहा प्रकृति का मै वंदन

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

भैया लाल

रत के बारह बज रहे थे
लच्छू चाचा दरवाजे पर खड़े
अपने मंद बुद्धि बच्चे
भैयालाल की
बड़े बेचैनी से प्रतीक्षा कर रहे थे
कोरो से बहते आंसुओं को
रह रह कर पोछ रहे थे

आज चार दिन हो गए
जाने वह कहा चला गया
कही बहुत दूर तो नहीं निकल गया
शायद रास्ता भटक गया
इसीलिए घर नहीं आ पाया
न जाने कैसे और कहाँ होगा
कैसे अपना ख्याल रख कर
क्या खता पीता होगा
समय तो नित्य सुबह
नाश्ते के बाद वह घर से निकल जाता
बाजार में जाकर इनके उनके यहाँ बैठ
दोपहर में खाने घर आ जाता
सोच सोच चाचा का कलेजा
मुह को आ जाता
चाची के देहावसान के उपरांत
पिता के साथ वही थे उसके माता
शेष भाइयों या बच्चों को
उसकी कोई खास चिंता नहीं थी
बड़ी बहुओं को तो बस
उसके मौत की ही प्रतीक्षा थी
उनकी बेचैनिओं ने मुझे
इस कदर बेचैन कर दिया
जा तो रहा था मै बड़े ही जरूरी काम से
पर उनके मौन आग्रह पर
छोटे को लेकर भैया लाल को
खोजने चल दिया
मन तमाम अनिष्ट कि आशंका से
आहत हो रहा था
साथ ही एक दूसरे से पूछते टोह लेते
उसको खोजने का उपक्रम जारी था
अचानक घर से लगभग पच्चीस मील दूर
सड़क के किनारे उसे लेटे देखा
ऐसा लगा कही किसी ट्रक से
दब तो नहीं गया
घबड़ाकर मन काप गया
लच्छू चाचा कि दशा सोच
तन सिहर गया
मैंने रुक कर उसे आवाज दिया
एक ही आवाज में वह उठ गया
उसकी दीन हीन दशा देख
भगवान के फैसले पर अफ़सोस होने लगा
शारीर पर तमाम चोटों के
निशान से वह बेचैन था
घावों से अनवरत रक्त बह रहा था
पता नहीं बच्चों ने उसे पागल समझ
कितना पत्थर बरसाया होगा
इसी बीच कितने ऐसे जुल्म
इस बेचारे ने सहा होगा

मैंने तुरंत उसे अपनी
मोटर साइकिल पर बैठाया
छोटे ने मोबाइल से घर पर
उसेक पाने कि सूचना तुरन्त ही पहुचाया
अज्ञात खुशी से आह्लादित
उसे ले मै घर आया
सिसक कर चाचा ने उसे
विह्वल हो गले लगा लिया

पिता पुत्र के इस मिलन को
भीगी पलकों से मैं
जीभर कर निहारता रहा
टूटते परिवार
और छीजते घर
बारके दौर में
रक्त के मजबूत रिश्तों की
गाथा कहता रहा
मेरा कविहृदय इन रिश्तो को
एक नूतन आयाम देता रहा
वस्तुतः मै एक बार पुनः
रिश्तों कि इस अबूझ पहेली को
हल करने में विफल रहा
सबसे अक्षम बेटे के लिए भी
पिता के सामान्य से भी बहुत ज्यादा
प्यार के बिपुलता की दासता
कहता रहा

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

भरतुआ

पड़ोस में देख
एक विवाह का आयोजन
भरतुआ को लग रहा था कि
आज अवश्य ही पूरा होगा
उसका प्रयोजन

पिछले कई दिनों से
बापू की तबीयत ठीक नहीं थी
किसी तरह माँ बिना दाल और
सब्जी के बस अचार के साथ ही
रोटी दे पा रही थी
कभी कभी तो वह भी
मयस्सर नहीं हो पा रहा थी
पर आज एक अच्छे भोजन की
उम्मीद जग गयी थी

सबेरे ही भरतुआ जुट गया
अपने कपड़ो को साफ करने में
बिन बुलाये मेहमान की तर्ज पर
बीच बीच में
मेजबान के यहाँ भी जाकर
कुछ कम कर जाता
अपनी अनचाही उपस्थिति
दर्ज करा आता

तमाम पकवानों कि खुशबुओं से
गमक रहा था पूरा वातावरण
शाम को रोशनी से जगमगा उठा था
पूरा आयोजन स्थल
कट नहीं रहा था बस तो
भरतुआ से इंतजार का
एक एक पल

मेजबान के आहवाहन पर
जैसे ही लोग बाग
सुस्वादु व्यंजनों की और बढे
भरतुआ ने भी कदम
अन्दर रखा धीरे से
गृहस्वामी गरजा चिल्लाया
अरे देखो साला फालतू
कहाँ से घुस आया
पीट कर भगाओ स्साले को
इसको है किसने बुलाया
चलने लगे उस अबोध पर
थप्पड़ो की बौछारें
अंत में एक ने उसके हाथ को ऐठ
पकड़ कान कर दिया किनारे

अनवरत थप्पड़ों की मार से
उसका गाल सूज आया
अंत में अधमरा हो वह
बिना कुछ खाए पिए
घर लौट गया

माँ ने पूछा
भरतुआ तू कियन गई रहा
हम कब से तुम्हार रोटी बनाय
इंतजार कई रहा
बाबू आज रोटी के साथ
आलू झोल भी बनावा है
तोहे बबुआ बहुते भावा है
का बात है तुम्हारी तबीयत
आज ठीक रउए
आव आज तोहे
अपने हाथ से खियाबे

भरतुआ बड़े प्रेम से
अपनी माँ के हाथो से खा रहा था
एक एक कौर से उसका
एक एक रोम तृप्त हो रहा था
आज भरतुआ को रोटी और झोल
बेहद स्वादिष्ट लग रही थी
बेशक उसमे माँ की ममता
जो मिली हुए थी
वह सोच रहा था कि
रोज ही तो वह माँ के हाथ का
बना भोजन खा रहा था
मगर आज उसी खाने का स्वाद
आज बेहतर क्यों
नजर रहा था
शायद इस खाने में सम्मान और
स्वाभिमान जो मिला था

भरपेट खाकर भरतुआ
माँ की लोरी सुनते हुए
कब सो गया पता ही नहीं चला
सुबह होने पर देखा तो
सूरज सर पर चढ़ आया

सामने विवाह स्थल पर
बचे भोजन बाहर फेके जा रहे थे
कुछ बची हुई सब्जी और पूड़ी लेकर
मेजबान के लड़के
उसे देने उसके घर आये थे
भरतुआ चिल्लाया
मत लेना माँ इस खाने को
हमीं है क्या इन
खैरात को खपाने को
क्या हमीं है इनके इकठ्ठे
गए पापों को बटाने को
बच गया तो साले आये है
पुण्य कमाने को