पा पा पापा
कहते राधिका ने
धीरे से ऑंखें खोला
रामसिंह ने उसका हाथ
अपने सीने से लगाते हुए
डॉक्टर से बोला
डॉक्टर बाबु बिटिया अब
हमारी होश में आ गयी
रेस में तो वह फर्स्ट
पहले ही आ गयी थी
पूरा स्कूल प्रिंसिपल के साथ
बाहरकर रहे है इसकी प्रतीक्षा
पूरी करने को इसकी इक्षा
बिटिया उठौ चलो
अपना प्रथम पुरस्कार
साइकिल लई लो
सबके संग फूटू खिचवा लेयो
यह सुन राधिका हो गयी उदास
बाहर प्रेसवाले भी
कर रहे थे उसका इन्तजार
मै भी बगल के बेड पर
अपने बीमार बच्चे के साथ था
जिसके स्वास्थ्य में क्रमशः
सुधार हो रहा था
मैंने पूछा बिटिया
तुम क्यों हो गयी हो उदास
बोली अंकल आओ हमरे पास
मै न तीसरे स्थान पर
आना चाहती थी
तीसरे स्थान के पुरस्कार
मिक्सी को मम्मी के लिए
पाना चाहती थी
इसीलिए बुखार होने के बाद भी
पूरे लगन से
इस रेस में दौड़ी थी
काफी दिनों से मम्मी
हाथ के दर्द से कराहती है
पापा कि आय देख कर
मजबूरी में उनसे
कुछ नहीं कहती है
हमारे द्वारा बड़ी पापड़ और अचार
बनाकर बाज़ार में बेचा जाता है
तब किसी तरह घर का खर्च
मेरी पढाई के साथ चल पाता है
सिल बट्टे पर अब
मम्मी के हाथ नहीं चलते है
ज्यादा मेहनत करने से
हाथो में छाले पड़ जाते है
पहली बार प्रथम आने पर
मैंने किसी को उदास पाया
प्रेमचंद के इदगाह का हामिद
बरबस याद आया
मन ही मन मैंने
यह सोच लिया था
अस्पताल से फुर्सत पाने के बाद
प्रथम के साथ तीसरे स्थान का
पुरस्कार भी राधिका को
देने को ठान लिया था
मंगलवार, 31 मई 2011
बुधवार, 25 मई 2011
भयाक्रांत स्वंतंत्रता
भीषण जेठ कि तपन
समाप्त हो रही थी
मानसून दस्तक ने चुकी थी
घर से स्कूल के लिए
यह सोच कर निकला कि
आज तो रेनी डे हो ही जायेगा
स्कूल से निकल कर
दूर सीवान के तालाब पर
दोस्तों संग होगी बैठक
खायेगे भूजा आपस में बाटकर
साथ ही कागजी नावों की
होगी दमदार टक्कर
पर जैसे ही तालाब पर पंहुचा
किनारे पर एक तोते के बच्चे की
कराह से मन बिलखा
दो कौवों के आक्रमण से आक्रांत
मेरी ओर कातर देखता भयाक्रांत
मानसून कि प्रस्तावित मस्ती भूलकर
उसे घर ले आया बस्ते में डालकर
काफी दिनों से घर में
एक पिजड़ा खाली पड़ा था
उसके घावों को धो डीटोल से
उसे मैंने उस पिजड़े में डाला था
सुबह शाम पढाई के साथ
उसकी देखभाल और दानापानी
बन गयी मेरी दिनचर्या
उस अनाम रिश्ते पर मेरा
पॉकेट मनी होने लगा खरचा
दिन पर दिन नूतन आयामों के बीच
उसके हमारे संबंधों में
प्रगाढ़ता बढती गयी
एक बेनाम रिश्ते को जन्म देती गयी
समय अपनी अबाध गति से चलता रहा
वह बच्चे से व्यस्क तोता
बनता गया
स्वतंत्र विचारों की प्रगतिशील
मानसिकता मेरी
मुझे रोज धिक्कारती
कि इसके अन्दर अपनी जिन्दगी
अपने ढंग से जीने का जज्बा आ गया है
इसे कैद से मुक्त करने का
समय आ गया है
इस बेनाम रिश्ते को यही
समाप्त कर देना चाहिए
इसके प्रति अपनी अंतिम
जिम्मेदारियों को पूरी कर देनी चाहिए
पर मन में था कही यह भी मलाल
कि पहले यह ले अपने को
सम्पूर्णता से संभाल
अपना अस्तित्व बचाने में
हो जाये यह सक्षम
वास्तविकता पर भावना का
दूर हो यह भ्रम
कलेजे पर रख पत्थर
इस सम्बन्ध को यही समाप्त कर दूगा
उसी दिन इस अनाम रिश्ते से
सदा के लिए मुक्त हो जाऊंगा
वह दिन भी आ गया
बेटू को पिजड़े में होने लगी दिक्कत
देख उसकी मशक्कत
छत पर ले जाकर पिजड़ा
छिपाकर उससे अपना अवसादित मुखड़ा
भीगे आंसुओं से मुक्त कर
कर दिया उसे विदा
उपरांत भारी मन से
स्कूल चला गया
पूरा दिन बेचैनी और
अवसाद का बना साक्षी
बेशक था वह एक पक्षी
पर उस अनाम से रिश्ते ने
आज पूरा दिन ही मुझे रुलाया था
पढाई आज मुझे
तनिक भी नहीं भाया था
शाम तनिक देर से घर लौटा
छत पर बेटू की आवाज सुनकर चौका
भागता हुआ छत पर पहुंचा
देखा बेटू मजे से पिजड़े में
आराम फरमा रहा था
मै आश्चर्य से कभी उसे कभी
उस पिजड़े को देख रहा था
लगा शायद कही मेरे आने का
इन्तजार तो नहीं कर रहा था
पास पीपल के पेड़ पर
बैठे दो गीध
उस पर नजर गडाए थे
मुझे पुराने दिन याद आये थे
आज भी मानो बेटू मुझसे कह रहा था
बचा लो मुझे इन भेड़ियों से
हमारे अनाम रिश्ते की दुहाई दे रहा था
मुझे अब जाना नहीं है यहाँ से
उस आजादी से
यह कैद है बेहतर
जहा आप जैसो का
सानिध्य है सुन्दर
इस कैद का जीवन उस
स्वतंत्रता से है अच्छा
जहाँ मिलती है प्यार दुलार और
नसीहत के साथ भरपूर सुरक्षा
मुझे अभी और
बहुत कुछ है जानना
आदर्श जीवन दर्शन को है पहचानना
कैद में भी रहकर उसकी आँखों में
सुख और संतोष का
आंसू भर आया
उस अज्ञात और असीमित
ख़ुशी को मन में दबाया
पिजड़े को नीचे आंगन में लाया
उसे दाना पानी देकर
उसके पास बैठ कर सोचते हुए
वर्तमान सामाजिक परिवेश में
मै प्रवेश कर गया
एक नए बहस को जन्म दे गया
कि कैसे बेहतर है
भयमुक्त गुलामी एक
भयाक्रांत स्वंतंत्रता से
आज भी हमारे बूढ़े जो कहते है
क्या सच में
अतीत की परतंत्रता बेहतर थी
वर्तमान स्वतंत्रता से
समाप्त हो रही थी
मानसून दस्तक ने चुकी थी
घर से स्कूल के लिए
यह सोच कर निकला कि
आज तो रेनी डे हो ही जायेगा
स्कूल से निकल कर
दूर सीवान के तालाब पर
दोस्तों संग होगी बैठक
खायेगे भूजा आपस में बाटकर
साथ ही कागजी नावों की
होगी दमदार टक्कर
पर जैसे ही तालाब पर पंहुचा
किनारे पर एक तोते के बच्चे की
कराह से मन बिलखा
दो कौवों के आक्रमण से आक्रांत
मेरी ओर कातर देखता भयाक्रांत
मानसून कि प्रस्तावित मस्ती भूलकर
उसे घर ले आया बस्ते में डालकर
काफी दिनों से घर में
एक पिजड़ा खाली पड़ा था
उसके घावों को धो डीटोल से
उसे मैंने उस पिजड़े में डाला था
सुबह शाम पढाई के साथ
उसकी देखभाल और दानापानी
बन गयी मेरी दिनचर्या
उस अनाम रिश्ते पर मेरा
पॉकेट मनी होने लगा खरचा
दिन पर दिन नूतन आयामों के बीच
उसके हमारे संबंधों में
प्रगाढ़ता बढती गयी
एक बेनाम रिश्ते को जन्म देती गयी
समय अपनी अबाध गति से चलता रहा
वह बच्चे से व्यस्क तोता
बनता गया
स्वतंत्र विचारों की प्रगतिशील
मानसिकता मेरी
मुझे रोज धिक्कारती
कि इसके अन्दर अपनी जिन्दगी
अपने ढंग से जीने का जज्बा आ गया है
इसे कैद से मुक्त करने का
समय आ गया है
इस बेनाम रिश्ते को यही
समाप्त कर देना चाहिए
इसके प्रति अपनी अंतिम
जिम्मेदारियों को पूरी कर देनी चाहिए
पर मन में था कही यह भी मलाल
कि पहले यह ले अपने को
सम्पूर्णता से संभाल
अपना अस्तित्व बचाने में
हो जाये यह सक्षम
वास्तविकता पर भावना का
दूर हो यह भ्रम
कलेजे पर रख पत्थर
इस सम्बन्ध को यही समाप्त कर दूगा
उसी दिन इस अनाम रिश्ते से
सदा के लिए मुक्त हो जाऊंगा
वह दिन भी आ गया
बेटू को पिजड़े में होने लगी दिक्कत
देख उसकी मशक्कत
छत पर ले जाकर पिजड़ा
छिपाकर उससे अपना अवसादित मुखड़ा
भीगे आंसुओं से मुक्त कर
कर दिया उसे विदा
उपरांत भारी मन से
स्कूल चला गया
पूरा दिन बेचैनी और
अवसाद का बना साक्षी
बेशक था वह एक पक्षी
पर उस अनाम से रिश्ते ने
आज पूरा दिन ही मुझे रुलाया था
पढाई आज मुझे
तनिक भी नहीं भाया था
शाम तनिक देर से घर लौटा
छत पर बेटू की आवाज सुनकर चौका
भागता हुआ छत पर पहुंचा
देखा बेटू मजे से पिजड़े में
आराम फरमा रहा था
मै आश्चर्य से कभी उसे कभी
उस पिजड़े को देख रहा था
लगा शायद कही मेरे आने का
इन्तजार तो नहीं कर रहा था
पास पीपल के पेड़ पर
बैठे दो गीध
उस पर नजर गडाए थे
मुझे पुराने दिन याद आये थे
आज भी मानो बेटू मुझसे कह रहा था
बचा लो मुझे इन भेड़ियों से
हमारे अनाम रिश्ते की दुहाई दे रहा था
मुझे अब जाना नहीं है यहाँ से
उस आजादी से
यह कैद है बेहतर
जहा आप जैसो का
सानिध्य है सुन्दर
इस कैद का जीवन उस
स्वतंत्रता से है अच्छा
जहाँ मिलती है प्यार दुलार और
नसीहत के साथ भरपूर सुरक्षा
मुझे अभी और
बहुत कुछ है जानना
आदर्श जीवन दर्शन को है पहचानना
कैद में भी रहकर उसकी आँखों में
सुख और संतोष का
आंसू भर आया
उस अज्ञात और असीमित
ख़ुशी को मन में दबाया
पिजड़े को नीचे आंगन में लाया
उसे दाना पानी देकर
उसके पास बैठ कर सोचते हुए
वर्तमान सामाजिक परिवेश में
मै प्रवेश कर गया
एक नए बहस को जन्म दे गया
कि कैसे बेहतर है
भयमुक्त गुलामी एक
भयाक्रांत स्वंतंत्रता से
आज भी हमारे बूढ़े जो कहते है
क्या सच में
अतीत की परतंत्रता बेहतर थी
वर्तमान स्वतंत्रता से
रविवार, 22 मई 2011
आद्यांत
पिछले पंद्रह दिनों से
बेटे के यहाँ स्टोर रूम में पड़ी थी
दो रूम का फ्लैट और
उस पर गर्मी सड़ी थी
बेटे के बड़े आग्रह पर
गाँव से शहर अपने दमे के
इलाज के लिए आयी थी
पर यहाँ के आबोहवा में
गाँव कि बात कहाँ थी
पूरी कायनात वायु जल
ध्वनी प्रदुषण से बजबजा रही थी
पर बेटे बहू और पोते के
सानिध्य और सुख कि चाहत ने
बेटे के बेमन से ही सही
किये गए आग्रह से वह
यहाँ आ तो गयी
पर ठीक होने से रही
जेठ की दोपहरी में
आराम फरमा रहे थे
बेटे बहू सब अपने कमरे में
बच्चो के साथ कूलर कि शीतल हवा में
वह खोमोश एक फालतू
वस्तु की तरह स्टोर में लेटी थी
एकाएक खांसी ऐसी आयी की
रोके न रुक रही थी
बाहर निकल कर आंगन में
जैसे ही शीशे के ग्लास को
पानी के लिए हाथ लगाया
उम्र का तकाजा पैर लडखडाया
किसी तरह अपने को
गिरने से बचाया
पर बचा नहीं सकी उस
दो रुपल्ली के गिलास को
जिससे बुझाने चली थी
अपनी प्यास को
छन् की आवाज के साथ
चकनाचूर हो पूरे आंगन में
शीशा फ़ैल गया
बहू तो बहू बेटे न भी
उसे आड़ो हाथ लिया
कब तोहे अम्मा समझ आइये
मुनिया क मम्मी तोहे का का बताइए
दुई घड़ी चैन न रहि सकित हो
अकल कहाँ बेच दई हो
कई बेर कहा की तनिक
देख कर चला कर
आखिर संतोष होई गवा न
गिलास तोड्वा कर
बहू भी साथ में बरसती रही
माँ बस सोचती रही
बचपन में केतना गिलास
अउर केतना बर्तन लल्ला तोड़ चुका हयन
कबौ एका मार त दूर
डटो न पड़ा रहेन
कितनी परेशानियाँ अउर प्यार से
एका हम पाला रहा
आज उहे बबुआ हमका नसीहत दै रहा
बचपन में जेका हसी आंसू अउर
हाव भाव से हम ओका जरूरत
भरपूर मजे मा भापत रही
उहे बबुआ आज हमरी समझ में
खोट अउर कमी निकलत हई
सोचते सोचते माँ की आंखे
आंसुओं से भर गयी
पर उसे देखने की फुर्सत किसे थी
सच उस माँ न न जाने
कितने जतन से उसे पाला था
अपनेआप को उस पर
कुर्बान कर डाला था
आह्लादित मनसे अनवरत
शैशवावस्था से बालपन तक
करती रही थी जिसके मलमूत्र का
खुशी से विसर्जन
उसके एक एक आंसू पर करती रही
अपनी सौ सौ खुशियाँ अर्पण
बलैया लेते जिसकी थकती
नहीं थी दिन रात
उसे पता ही नहीं चला कि
अचानक कब आ गया
युवा रात्रि के उपरांत वृद्ध यह प्रभात
कृश हो चुके हाथो से
फर्श बुहार कर साफ करती रही
बहू कि आवाज थी कि
बंद होने से रही
आद्यांत
उसे लग रहा था कि वह भी
स्टोर की एक फालतू वस्तु बन चुकी थी
जिसकी जरूरत यहाँ किसी को नहीं थी
जबकि गाँव के खेत खलिहानों में
खेलते बच्चे और
पनघट पर पानी भरती बहुए
कल तक हर सुख दुःख में
साथ रहती थी
उसे दादी अम्मा कहते नहीं थकती थी
मन ही मन
कल सुबह ही वह भारी मन से
शहर छोड़ने का फैसला
कर चुकी थी
बेटे के यहाँ स्टोर रूम में पड़ी थी
दो रूम का फ्लैट और
उस पर गर्मी सड़ी थी
बेटे के बड़े आग्रह पर
गाँव से शहर अपने दमे के
इलाज के लिए आयी थी
पर यहाँ के आबोहवा में
गाँव कि बात कहाँ थी
पूरी कायनात वायु जल
ध्वनी प्रदुषण से बजबजा रही थी
पर बेटे बहू और पोते के
सानिध्य और सुख कि चाहत ने
बेटे के बेमन से ही सही
किये गए आग्रह से वह
यहाँ आ तो गयी
पर ठीक होने से रही
जेठ की दोपहरी में
आराम फरमा रहे थे
बेटे बहू सब अपने कमरे में
बच्चो के साथ कूलर कि शीतल हवा में
वह खोमोश एक फालतू
वस्तु की तरह स्टोर में लेटी थी
एकाएक खांसी ऐसी आयी की
रोके न रुक रही थी
बाहर निकल कर आंगन में
जैसे ही शीशे के ग्लास को
पानी के लिए हाथ लगाया
उम्र का तकाजा पैर लडखडाया
किसी तरह अपने को
गिरने से बचाया
पर बचा नहीं सकी उस
दो रुपल्ली के गिलास को
जिससे बुझाने चली थी
अपनी प्यास को
छन् की आवाज के साथ
चकनाचूर हो पूरे आंगन में
शीशा फ़ैल गया
बहू तो बहू बेटे न भी
उसे आड़ो हाथ लिया
कब तोहे अम्मा समझ आइये
मुनिया क मम्मी तोहे का का बताइए
दुई घड़ी चैन न रहि सकित हो
अकल कहाँ बेच दई हो
कई बेर कहा की तनिक
देख कर चला कर
आखिर संतोष होई गवा न
गिलास तोड्वा कर
बहू भी साथ में बरसती रही
माँ बस सोचती रही
बचपन में केतना गिलास
अउर केतना बर्तन लल्ला तोड़ चुका हयन
कबौ एका मार त दूर
डटो न पड़ा रहेन
कितनी परेशानियाँ अउर प्यार से
एका हम पाला रहा
आज उहे बबुआ हमका नसीहत दै रहा
बचपन में जेका हसी आंसू अउर
हाव भाव से हम ओका जरूरत
भरपूर मजे मा भापत रही
उहे बबुआ आज हमरी समझ में
खोट अउर कमी निकलत हई
सोचते सोचते माँ की आंखे
आंसुओं से भर गयी
पर उसे देखने की फुर्सत किसे थी
सच उस माँ न न जाने
कितने जतन से उसे पाला था
अपनेआप को उस पर
कुर्बान कर डाला था
आह्लादित मनसे अनवरत
शैशवावस्था से बालपन तक
करती रही थी जिसके मलमूत्र का
खुशी से विसर्जन
उसके एक एक आंसू पर करती रही
अपनी सौ सौ खुशियाँ अर्पण
बलैया लेते जिसकी थकती
नहीं थी दिन रात
उसे पता ही नहीं चला कि
अचानक कब आ गया
युवा रात्रि के उपरांत वृद्ध यह प्रभात
कृश हो चुके हाथो से
फर्श बुहार कर साफ करती रही
बहू कि आवाज थी कि
बंद होने से रही
आद्यांत
उसे लग रहा था कि वह भी
स्टोर की एक फालतू वस्तु बन चुकी थी
जिसकी जरूरत यहाँ किसी को नहीं थी
जबकि गाँव के खेत खलिहानों में
खेलते बच्चे और
पनघट पर पानी भरती बहुए
कल तक हर सुख दुःख में
साथ रहती थी
उसे दादी अम्मा कहते नहीं थकती थी
मन ही मन
कल सुबह ही वह भारी मन से
शहर छोड़ने का फैसला
कर चुकी थी
गुरुवार, 12 मई 2011
अपनी संस्कृति
अअरे रामकुमर
देख ऊ आवत आ
जवन कलिहा तोहे अस तोरान तोड़े रहा
तबियत से तोहे पीटे रहा
चल ओके बतावा जाये
तब न ओके समझ में आइये
कि तोडाय पर कैसा दर्द होइए
नाही त ऊ हम गाँव वालन के
बौचट समझिये
सुन ठिठक गए मेरे कदम
टूटने वाला ही था मेरा भरम
देखा तो बगल कि गली में
कुछ बच्चे कंचे खेलने में मस्त थे
तन्मयता से अपने खेल में
तबियत से व्यस्त थे
उसी में वह लड़का भी था
जिसे कल मैंने मुखियाजी के
बारात में पीटा था
वस्तुतः वह थोडा ज्यादा ही चंचल था
बालसुलभ चंचलता में मस्त था
अपनी ही धुन में पस्त
वह तेजी से मुखियाजी के दरवाजे पर
पहुँच चुकी बारात के मध्य
हमें चीरते हुए भागा
उसी चक्कर में पूरा दही
मेरे ऊपर गिर गया अभागा
क्रोध से लाल मैं कभी अपने
नए सूट को कभी उस लडके को देखता
क्रोध को शांत करने के एवज में
पकड़ उस लडके को रहा पीटता
कुछ लोगो ने उसे हमसे छुड़ाया
डांट कर उसे भगाया
खैर बात आयी गयी
सुबह जब हो रही थी
बारात कि विदाई
समय से ऑफिस पहुचने के लिए
मैं और मेरे एक साथी
गाँव से धीरे से निकले
तभी उक्त आवाज सुन कर सिहरे
मुझे देख रामकुमार मेरे करीब आया
बोला बाबू आप जिन घबराया
आप आराम से जाही
आप जो काल किये रहा
ऊ कौनों गलत नाही रहा
गलती त हमरे रहा
तोहरे जगह अगर हमऊ रहित
त ऊहे करित जौन तू किये रहा
अरे समुआ पिअरवा और धनुआ रुके रहा
केहू जिन आगे बढ़ा
तू सबै के मालूम होए के चाही
कि इ मुखियाजी क मेहमान हउवन
यानि सारे गाँव क मेहमान भइलन
दद्दा हमरे कहत रहिन कि
मेहमान त भगवान सामान होलें
इनके नाराज भइलें पर राम नाराज होलें
इनका हमें सम्मान करे का चाही
आयी चली बाबू हम तोहका
छोड़ देई पाही
मौन
मुझे तो मानो काठ मर गया
शिक्षित होने का गरूर झुझला कर
हमें शर्मशार कर गया
उस गवई बालक को जहाँ अभी तक मैं
अनाड़ी संस्कारहीन और
दुष्ट समझ रहा था
वह मुझे अच्छी तरह नैतिकता
और अपनी संस्कृति का पाठ
सरोतर पढ़ा गया था
देख ऊ आवत आ
जवन कलिहा तोहे अस तोरान तोड़े रहा
तबियत से तोहे पीटे रहा
चल ओके बतावा जाये
तब न ओके समझ में आइये
कि तोडाय पर कैसा दर्द होइए
नाही त ऊ हम गाँव वालन के
बौचट समझिये
सुन ठिठक गए मेरे कदम
टूटने वाला ही था मेरा भरम
देखा तो बगल कि गली में
कुछ बच्चे कंचे खेलने में मस्त थे
तन्मयता से अपने खेल में
तबियत से व्यस्त थे
उसी में वह लड़का भी था
जिसे कल मैंने मुखियाजी के
बारात में पीटा था
वस्तुतः वह थोडा ज्यादा ही चंचल था
बालसुलभ चंचलता में मस्त था
अपनी ही धुन में पस्त
वह तेजी से मुखियाजी के दरवाजे पर
पहुँच चुकी बारात के मध्य
हमें चीरते हुए भागा
उसी चक्कर में पूरा दही
मेरे ऊपर गिर गया अभागा
क्रोध से लाल मैं कभी अपने
नए सूट को कभी उस लडके को देखता
क्रोध को शांत करने के एवज में
पकड़ उस लडके को रहा पीटता
कुछ लोगो ने उसे हमसे छुड़ाया
डांट कर उसे भगाया
खैर बात आयी गयी
सुबह जब हो रही थी
बारात कि विदाई
समय से ऑफिस पहुचने के लिए
मैं और मेरे एक साथी
गाँव से धीरे से निकले
तभी उक्त आवाज सुन कर सिहरे
मुझे देख रामकुमार मेरे करीब आया
बोला बाबू आप जिन घबराया
आप आराम से जाही
आप जो काल किये रहा
ऊ कौनों गलत नाही रहा
गलती त हमरे रहा
तोहरे जगह अगर हमऊ रहित
त ऊहे करित जौन तू किये रहा
अरे समुआ पिअरवा और धनुआ रुके रहा
केहू जिन आगे बढ़ा
तू सबै के मालूम होए के चाही
कि इ मुखियाजी क मेहमान हउवन
यानि सारे गाँव क मेहमान भइलन
दद्दा हमरे कहत रहिन कि
मेहमान त भगवान सामान होलें
इनके नाराज भइलें पर राम नाराज होलें
इनका हमें सम्मान करे का चाही
आयी चली बाबू हम तोहका
छोड़ देई पाही
मौन
मुझे तो मानो काठ मर गया
शिक्षित होने का गरूर झुझला कर
हमें शर्मशार कर गया
उस गवई बालक को जहाँ अभी तक मैं
अनाड़ी संस्कारहीन और
दुष्ट समझ रहा था
वह मुझे अच्छी तरह नैतिकता
और अपनी संस्कृति का पाठ
सरोतर पढ़ा गया था
बुधवार, 4 मई 2011
अपनो कि विश्वास
शरद जरा
फ़ैल कर लेट रहो और
डब्बू तू भी ऊपर वाली बर्थ पर
जाकर फ़ैल रहो
हियन हम नीचे लेटा है
पता नहीं कहाँ कहाँ से
बिना रिजेर्वेशन के
सब चले आते है
थोड़ी सी जगह देखी नहीं कि
घुसक आते है
एक आधुनिक सी दिखनेवाली
महिला कि कर्कश आवाज दिल में
पिघलते शीशे कि तरह समाते है
दोपहर के दो बज रहे थे
कम्पार्टमेंट में भीड़ बहुत था
में अपने घर कानपुर
मम्मी को देखने जा रहा था
अचानक उनकी तबियत ख़राब होने से
नन्नू का बुलावा आया था
मै वही खड़े खड़े सब
तमाशा देख रहा था
पर्याप्त जगह होने के उपरांत भी
में खड़ा था
ऑफिस से सीधे स्टेशन के
लिए भागा था
लाइन में लग कर
किसी तरह टिकट पाया था
इस प्रक्रिया में
थक कर चूर हो गया था
इधर कुछ दिनों से ब्लड यूरिया
बढे होने से पैर भी सूज गया था
खड़े होने में अक्षम होने के कारण
वहीँ जमीन पर बैठ गया था
सामने कि बर्थ पर
उन तीनो को अकारण ही
दिन में लेटे हुए देख रहा था
कोई खाए बिना मरे कोई
खाय खाय कर मरे के
बारे में सोच रहा था
किसी तरह दोपहर के बाद
शाम भी ढलने लगी थी
ट्रेन भी काफी लेट हो चुकी थी
अब थकन के कारण कमर
सीधी करने कि इक्षा हो रही थी
मुझे जमीन पर ही लेटने दे
उक्त आशय का मैंने
उस महिला से अनुरोध किया
मगर उसने बिना किसी लाग लपेट के
सीधे मना कर दिया
बोली रिजेर्वेशन करवाया है
कोई हराम का बर्थ नहीं मिला है
तुम्हारे जैसे लोगो को मै
खूब पहचानती हूँ
हाथ पकड़ कर पंहुचा पकड़ने के
बारे में भी जानती हूँ
मै निराश एक हाथ में चादर
और एक हाथ में बैग लिए
दरवाजे की ओर बढ़ा
तभी एक वृद्ध व्यक्ति का
आवाज कानो में पड़ा
बेटा हिएन आ जाओ
अहिजे लेट जाओ
इस उमर में वैसे भी
नीद कहाँ आवत है
लेटे लेटे भी दिन कहाँ कटत है
काफी देर से हम तुमका देख रहे
तुम्हरी तबियत ठीक ना लगत है
तुम हमरी बर्थ पर हिएन लेट जाओ
हम किनारे पर बैठा है
कृतज्ञता से मै उस
वृद्ध को देख रहा था
अपने पिता की छबि
उसमे पा रहा था
पास बैठने पर उस वृद्ध ने कहा
बेटा क्या करोगे
तुम्हरी पीढ़ी की ही यह देन है
कोई किसी पर विश्वास नहीं करता
किसी कि मुसीबत में
कोई साथ नहीं देता
वह महिला भी कही से नहीं गलत है
आये दिने तो हम अख़बार में पढ़त है
बाकी हमार अनुभव से हम जानत है
सही और गलत को पहिचानत है
उस वृद्ध कि सुन बाते
मन हो गया उदास
मैंने भी ली एक गहरी साँस
सोच रहा था कि क्या हम
इसी को इक्कीसवी सदी कह रहे है
इस कदर विकसित और आधुनिक हो रहे है
कि अपनों का ही विश्वास खो रहे है
ऐसे विकास का क्या है दावा
वस्तुतः यह तो स्वयं को
देना है एक छलावा
ऐसा विकास तो सिर्फ
अब लगता है एक दिखावा
फ़ैल कर लेट रहो और
डब्बू तू भी ऊपर वाली बर्थ पर
जाकर फ़ैल रहो
हियन हम नीचे लेटा है
पता नहीं कहाँ कहाँ से
बिना रिजेर्वेशन के
सब चले आते है
थोड़ी सी जगह देखी नहीं कि
घुसक आते है
एक आधुनिक सी दिखनेवाली
महिला कि कर्कश आवाज दिल में
पिघलते शीशे कि तरह समाते है
दोपहर के दो बज रहे थे
कम्पार्टमेंट में भीड़ बहुत था
में अपने घर कानपुर
मम्मी को देखने जा रहा था
अचानक उनकी तबियत ख़राब होने से
नन्नू का बुलावा आया था
मै वही खड़े खड़े सब
तमाशा देख रहा था
पर्याप्त जगह होने के उपरांत भी
में खड़ा था
ऑफिस से सीधे स्टेशन के
लिए भागा था
लाइन में लग कर
किसी तरह टिकट पाया था
इस प्रक्रिया में
थक कर चूर हो गया था
इधर कुछ दिनों से ब्लड यूरिया
बढे होने से पैर भी सूज गया था
खड़े होने में अक्षम होने के कारण
वहीँ जमीन पर बैठ गया था
सामने कि बर्थ पर
उन तीनो को अकारण ही
दिन में लेटे हुए देख रहा था
कोई खाए बिना मरे कोई
खाय खाय कर मरे के
बारे में सोच रहा था
किसी तरह दोपहर के बाद
शाम भी ढलने लगी थी
ट्रेन भी काफी लेट हो चुकी थी
अब थकन के कारण कमर
सीधी करने कि इक्षा हो रही थी
मुझे जमीन पर ही लेटने दे
उक्त आशय का मैंने
उस महिला से अनुरोध किया
मगर उसने बिना किसी लाग लपेट के
सीधे मना कर दिया
बोली रिजेर्वेशन करवाया है
कोई हराम का बर्थ नहीं मिला है
तुम्हारे जैसे लोगो को मै
खूब पहचानती हूँ
हाथ पकड़ कर पंहुचा पकड़ने के
बारे में भी जानती हूँ
मै निराश एक हाथ में चादर
और एक हाथ में बैग लिए
दरवाजे की ओर बढ़ा
तभी एक वृद्ध व्यक्ति का
आवाज कानो में पड़ा
बेटा हिएन आ जाओ
अहिजे लेट जाओ
इस उमर में वैसे भी
नीद कहाँ आवत है
लेटे लेटे भी दिन कहाँ कटत है
काफी देर से हम तुमका देख रहे
तुम्हरी तबियत ठीक ना लगत है
तुम हमरी बर्थ पर हिएन लेट जाओ
हम किनारे पर बैठा है
कृतज्ञता से मै उस
वृद्ध को देख रहा था
अपने पिता की छबि
उसमे पा रहा था
पास बैठने पर उस वृद्ध ने कहा
बेटा क्या करोगे
तुम्हरी पीढ़ी की ही यह देन है
कोई किसी पर विश्वास नहीं करता
किसी कि मुसीबत में
कोई साथ नहीं देता
वह महिला भी कही से नहीं गलत है
आये दिने तो हम अख़बार में पढ़त है
बाकी हमार अनुभव से हम जानत है
सही और गलत को पहिचानत है
उस वृद्ध कि सुन बाते
मन हो गया उदास
मैंने भी ली एक गहरी साँस
सोच रहा था कि क्या हम
इसी को इक्कीसवी सदी कह रहे है
इस कदर विकसित और आधुनिक हो रहे है
कि अपनों का ही विश्वास खो रहे है
ऐसे विकास का क्या है दावा
वस्तुतः यह तो स्वयं को
देना है एक छलावा
ऐसा विकास तो सिर्फ
अब लगता है एक दिखावा
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