शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

मानों विराट क्षितिज को दे दिया हो जैसे एक छोटा सा बसेरा

बापू के अवसान के उपरांत
माँ को मै गाँव से शहर लाया
सोचा माँ के ममता की
बनी रहेगी मुझ पर छाया
काफी दिनों से दूर था
मुझसे मेरी माँ का साया
चूंकि बापू की बीमारी और
गाँव को न छोड़ने की चाहत ने
मुझे कई बार सिद्दत से तडपाया
टीस हमेशा थी की अपनी
इच्छानुसार मै उनकी
सेवा कर नहीं पाया
एक पिता की चाहत होती है
उम्र के इस मुकाम पर
हरदम रहे पुत्रो का साथ
जीवन की इस राह पर
पर रोजी रोटी के ठौर ने
इस जैविक चाह को
जी भर कर रुलाया
बापू को न चाहते हुए भी
मैंने है बहुत तरसाया
किसी तरह माँ को दे दिलासा
अपने साथ लाया
बेशक माँ तो गाँव छोड़ने को
नहीं थी तैयार
बापू के यादों से भरा था घर द्वार
पर अंत में यह समझ कर की
वह हो गयी है अब बेकार
पहले तो बापू की सेवा में
दिनरात गुजर जाता था
रात को भरपूर नीद आता था
पर कैसे कटेगे यहाँ दिन और रात
काटने को दौडेगे खेत
खलियान और बाग़
यह सोच कहीं बबुआ
चला चली अब तोहरे ही साथ
हमरे ऊपर ज रही तोहार हाथ
तो हमारो नैया हो जाई पार
स्टेशन से जी भर गाँव को देखा
पुनः माँ के माथे पर देख
चिंता की रेखा
मैंने कहा माँ कहे तू होए रहू उदास
ऐजेहा फिर आवा जायेगा
बापू का याद तजा किया जावेगा
ऐसा कह मै उन्हें हँसाने का
करने लगा एक असफल प्रयास
पर कभी विशाल खेत खलियान
और बखरी होते थे जिनके गवाह
शहर की संकीर्ण जिंदगी में
रुक गया उनके जीवन का प्रवाह
किसी के पास उनके करीब
बैठने के लिए समय नहीं
अकेले बालकनी में बैठी
रहती थी आपही
बस देखती सूरज को होते अस्त
पत्नी गृहकार्य और बच्चो के
होम्वोर्क में व्यस्त
शेष समय दूसरों से गप्पें
मारने में मस्त
बच्चे आधुनिक पदाई से पस्त
में भी हो चला था क्रमशः
अपराधबोध से ग्रस्त
शायद माँ सबके लिए बोझ बन गयी थी
लग रहा था किसी तरह
जिंदगी की गाड़ी को खीच रही थी
ऊपर से अपनी प्रेयसी के बार बार
माँ के आने से अन्पैठ
लगने की बात
पहुचाते बहुत ही ह्रदय पर आघात
में बेबस हो चला था लाचार
में चाह कर भी नहीं छेदता
अपने साले साली और सास
के आने की बात
जिनके आने पर घर में छा जाती थी
रौनक और खुशियों की बरसात
बच्चे भी उड़ाते बात बात में
माँ का उपहास
सबके मध्य मेरे समायोजन का प्रयास
माँ का देख चेहरा उदास
जी किया माँ को ले गाँव ही लौट जाऊ
छोड़ कर नौकरी घर वही बसौऊ
तभी दिखता मुझे
एक तरफ अतीत तो
दूसरी तरफ भविष्य करता परिहास
कार्यालय से आने पर
में माँ की गोद में रख सर
अपने बचपन की यादे ताजा करते हुए
माँ के साथ अपनी भी
पूरी करता इछ्छा
वह भी हर शाम बेसब्री से करती
मेरे कार्यालय से लौटने की प्रतीक्षा
सोचता हूँ कैसी
अभागी है आज की पीढ़ी
चढ़ाना चाहती है ऊपर
निचे गिरा कर सीढ़ी
ये जानेगे क्या माँ के आँचल
और गोद की ममता
सच तो यह है की जिन्सवाली माँ पर
आँचल कहाँ है फबता
आज का युवा तो बस
नौकरों के हाथ ही पलता
बरबस में सोचता की में
माँ को कौन सा सुख दे रहा हूँ
अपने स्वार्थ के लिए उन्हें
खेत खलिहानों से दूर कर
उसे दुःख ही तो दे रहा हूँ
जैसे एक स्वतंत्र गौरैया को
पिजड़े में डौल कर रख दिया
उसके पास चावल का कसोरा
मानों विराट क्षितिज को दे दिया हो
जैसे छोटा सा एक बसेरा
निर्मेश सच जहाँ हो अपने चाहनेवाले
वही होता है परिवार
खून के रिश्ते तो अब
लगने लगे है बेकार

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

बुधिया

जीवन की वयास्तामम
आपाधापी से पस्त
फिर भी मस्त
बड़े ही अनुनय से एक
विवाह समारोह का बना मै गवाह
जहा जारी था अपने चरम पर
बारात का प्रवाह
युवाओ के मध्य तलाशता रहा मै
किंचित एक बूढ़ा
पर हमें ढूढ़ने से भी नहीं मिला

मै भूल गया की
ये है बीसवी कम इक्कीसवी सदी ज्यादा
आजका बुजुर्ग तो स्वयं
ऐसे अवसरों से दूर रह
बचाता है अपनी मर्यादा
तभी दिखा भीड़ मे उम्मीद का एक दिया
जिज्ञासवास पूछने पर
नाम बताया बुधिया
सर पर रखे प्रकाशपुंज का कलश
देखने मे लगता था एकदम
लचर और बेबस
अन्य मजदूरो के साथ प्रयासरत
मिलाता कदम से कदम
उर्जहीन बदन दिखता था बेदम
क्षुदा और उम्र से बेबस
व्यग्र दिखता लुटाने को सरवस
तभी आज मेरे यार की शादी की बजी धून
मदिरारत युवा नाचते
नाचते हो गए संग्यशुन्य

एक जाकर बुधिया से टकराया
पलट कर बुधिया को
एक घूसा भी जमाया
साले कायदे से नहीं चलते
हमें देख कर तुम भी मचलते
बुधिया गिर पड़ा
पर अपने रोशनी के गमले
पर पिल पड़ा
सोचा अगर ये टूट गया तो
मालिक कम से निकाल देगा
आज की मजदूरी भी कट लेगा
तो कल वो अपनी बीमार
लछिया की दवा और खाना
कहा से लायेगा
यह सोच उसे टूटने से
न केवल बचाया
वरन मुस्तैदी से उसे पुनः
अपने सर पर सजाया
इसी बीच वह युवक अन्य से
लड़ने मे हो गया तल्लीन
मेरा अच्छा खासा मन
हो गया मलीन
गृह स्वामी सबसे कहता
रहा भाई भाई
किसी को भी उस पर दया नहींआयी
उस युवक पर कई लोग पिल पड़े
पड़ने लगी उस पर जुटे चप्पले
तभी बुधिया अपना प्रकाश कलस
रख किनारे उस युवक के करीब आया
उसके ऊपर लेट कर
उसे मार से बचाया
लोगो से बोला पहले ही
कितनी देर हो गयी है
आपलोगों को क्या पड़ी है
यहाँ गृहस्वामी की मर्यादा
दाव पर लगी है कहकर लोगो को समझाया
बारात को आगे बढाया
मैंने पूछा चाचा ये कैसे हो गया
जिसने मारा आपको वही
आपका प्रिय हो गया
बुधिया बोला बेटा उसमे मुझे
आज से बीस वर्ष पहले
खो चुके बेटे की छबि पाया
किनारे खड़ा वह युवक शायद
पश्चाताप के आंसू बहा रहा
लहूलुहान हुए अपने किये की
सजा पा रहा
बुधिया स्नेह से उसे सहला रहा

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

मीठी वाणी से पाला

कार्यालय के

पुरे दिन की माथापच्ची से त्रस्त

कार्य की अधिकता से पस्त

दूर होते ही सूरज की छाया

मैं घर को लौट आया

की तभी एकाएक मेरा

मोबाइल घनघनाया

थके हाथो से मैंने मोबाइल को
कान पर लगाया
उधर से बहूत ही शांत धीर
व एक मधुर स्वर को पाया
लगा कानो में किसी ने
शहद घोल दिया हो
मिश्री से पूरे
बदन को तौल दिया हो
पूरे दिन के थकन से
मनो निजात मिल गयी हो
न चाहते हुए भी मानो
कोई सौगात मिल गयी हो

वस्तुतः
वह एक इन्वेस्टमेंट कम्पनी
की मुलाजिम थी
एक पौलिसी के लिए
पीछे पड़ी थी
मैंने पैसे के अभाव का देकर वास्ता
बंद करना ही चाहा था उसका रास्ता
तभी उसने कहा सर
प्लीज़ मेरी बात पहले सुन ले
फिर आपको जो लगे
गुण ले
मुझे उसकी आवाज की मधुरता ने
पुनः उसमे छिपी व्यथा ने
पूरी पवित्रता से
तरंगित कर डाला
एक अवांछित अनिच्छा से ही सही
उससे पर गया पला
बातें करते करते मुझे
हलकी नीद ने आगोश में ले लिया
तभी मेरी भार्या ने मुझे हिलाया
लिए हाथ में गरम चाय का प्याला

तब तलक उसकी बातें थी jaree
मुझे लगा की किस्मत की है वो मरी
लगता है टार्गेट की है लाचारी
करती भी क्या बेचारी
में थोडा द्रवित हुआ
फोन कटते हुए कहा की
अच्छा कल बिचार करेंगे
उसने तुरंत ही कहा सर
हम आपके फोन का सकारात्मक
पहल के साथ इंतजार करेंगे
चाय पीकर में सोचने लगा
मीठी वाणी का प्रभाव
लगता था की सारी थकन का
हो गया आभाव
आया रहीम की वो पंक्ति
जिसमे थी ये उक्ति
मीठी वाणी बोलिए मन का आप खोय
औरन को सीतल करे आपहु सीतल होय
यह सोचते सोचते
मैंने उनसे कल मिलाने को
अपनी डायरी में सकारात्मक
तिप्परियों के साथ नोट कर डाला
बेशक मेरा भी पद गया था
मीठी वाणी से पाला
में लगा सोचने
की अगर इतनी ताकत है मीठी वाणी में
की कुछ ही मिनटों में
कर ले दुनिया मुठ्ठी में
तो फिर हम अपनी सर्दारीयत के लिए
कटु वचनों व कटु युद्धरत कर्मो का
लेते है क्यों सहारा
देकर दुहाई धर्मो का

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

जीवन सजीव !

ले स्वछंदता का आचार व विचार
नित टूट रहे संयुक्त परिवार
लगने लगे है बेमानी
पैत्रिक घर द्वार
मायने खोते जा रहे सिवान
बीमार हो रहे बखरी
और खलिहान
पप्पू तो उड़ चले अमेरिका
बबलू भी चले ब्रिटेन
अम्मा और बाबु को
पूछता है कौन
बेबस वो चल पड़े गाँव की ओर
ले दादी की चटाई
और दद्दा का लालटेन

ज्यादा चाहने की लालच में
है कुछ टूट रहा
मानवीय संवेदनाओ से साथ
पीछे छूट रहा
लुप्त हो रही क्रमशः रिस्तो की मिठास
वो गाँव के चौपालों के rasile अहसास
सहानुभूति परोपकार प्यार व मस्ती
अपनापन कही गूम हो गया
पश्चिम का प्रभाव
हमारे समाज पर है
इस कदर हावी हो गया
की दम तोड़ते ओ गढ़ते नित
रिश्तो की नयी परिभाषा
जिनके बचने की दिखती
अब नहीं कोई आशा

संस्कारयुक्त शिछा के अभाव में
ये युवा नैतिक लछ्य से भटक जाते
अपने जनको को छोड़
देसी बिदेशी मेमो के साथ उड़ जाते
ऐश और भोग को
जीवन का आदर्श बनाते
मनो अपने माँ बाप से
अपने खो चुके बचपन का
बदला चुकाते
जिन्होंने बाजारवाद का दे वास्ता
छीन कर उनका बचपन
उनको दिखाया विकास का रास्ता
अपनी वन्छ्नाओ को उन पर लद्दा
सिखाया उनको कमाना ज्यादा
अस्तु
अब हमारे दोनों ही
में है जल भरा
कब तलक वो संभलेगा भला
आज हमें भी इस दिशा में सोचना होगा
नए सिरे से पुनः मंथन करना होगा
ऐसी स्थिति के लिए
हम भी कम नहीं जिम्मेदार
अपने बच्चे में पलते सपने हज़ार
और उन्हें किसी भी कीमत पर
पूरा करना चाहते है
बदले में उनके बचपन का
बलिदान मागते है
आज विज्ञानं भी
इस बात को मानता
की प्रकृति किसी के साथ
अन्याय नहीं करती
सबके अन्दर वो कोई एक
गुण विशेष भारती
उन गुणों को विकसित
करने के जगह
हम उन पर चलते है
अपनी मर्जी
जिसके बदले में वो हमें देते है सजा
बदल देते है एक सुसंगठित समाज की फिजा

अतः
शिछा ही नहीं संस्कार भी चाहिए
विकास की इस अंधी दौड़
में नैतिक मूल्यों की पतवार चाहिए

निर्मेश तभी रख पायेगे हम

एक मजबूत समाज की नीव

बेशक वो भी जी पायेगे

हमारे साथ जीवन सजीव !