मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

बुधिया

जीवन की वयास्तामम
आपाधापी से पस्त
फिर भी मस्त
बड़े ही अनुनय से एक
विवाह समारोह का बना मै गवाह
जहा जारी था अपने चरम पर
बारात का प्रवाह
युवाओ के मध्य तलाशता रहा मै
किंचित एक बूढ़ा
पर हमें ढूढ़ने से भी नहीं मिला

मै भूल गया की
ये है बीसवी कम इक्कीसवी सदी ज्यादा
आजका बुजुर्ग तो स्वयं
ऐसे अवसरों से दूर रह
बचाता है अपनी मर्यादा
तभी दिखा भीड़ मे उम्मीद का एक दिया
जिज्ञासवास पूछने पर
नाम बताया बुधिया
सर पर रखे प्रकाशपुंज का कलश
देखने मे लगता था एकदम
लचर और बेबस
अन्य मजदूरो के साथ प्रयासरत
मिलाता कदम से कदम
उर्जहीन बदन दिखता था बेदम
क्षुदा और उम्र से बेबस
व्यग्र दिखता लुटाने को सरवस
तभी आज मेरे यार की शादी की बजी धून
मदिरारत युवा नाचते
नाचते हो गए संग्यशुन्य

एक जाकर बुधिया से टकराया
पलट कर बुधिया को
एक घूसा भी जमाया
साले कायदे से नहीं चलते
हमें देख कर तुम भी मचलते
बुधिया गिर पड़ा
पर अपने रोशनी के गमले
पर पिल पड़ा
सोचा अगर ये टूट गया तो
मालिक कम से निकाल देगा
आज की मजदूरी भी कट लेगा
तो कल वो अपनी बीमार
लछिया की दवा और खाना
कहा से लायेगा
यह सोच उसे टूटने से
न केवल बचाया
वरन मुस्तैदी से उसे पुनः
अपने सर पर सजाया
इसी बीच वह युवक अन्य से
लड़ने मे हो गया तल्लीन
मेरा अच्छा खासा मन
हो गया मलीन
गृह स्वामी सबसे कहता
रहा भाई भाई
किसी को भी उस पर दया नहींआयी
उस युवक पर कई लोग पिल पड़े
पड़ने लगी उस पर जुटे चप्पले
तभी बुधिया अपना प्रकाश कलस
रख किनारे उस युवक के करीब आया
उसके ऊपर लेट कर
उसे मार से बचाया
लोगो से बोला पहले ही
कितनी देर हो गयी है
आपलोगों को क्या पड़ी है
यहाँ गृहस्वामी की मर्यादा
दाव पर लगी है कहकर लोगो को समझाया
बारात को आगे बढाया
मैंने पूछा चाचा ये कैसे हो गया
जिसने मारा आपको वही
आपका प्रिय हो गया
बुधिया बोला बेटा उसमे मुझे
आज से बीस वर्ष पहले
खो चुके बेटे की छबि पाया
किनारे खड़ा वह युवक शायद
पश्चाताप के आंसू बहा रहा
लहूलुहान हुए अपने किये की
सजा पा रहा
बुधिया स्नेह से उसे सहला रहा

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