शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

जीवन सजीव !

ले स्वछंदता का आचार व विचार
नित टूट रहे संयुक्त परिवार
लगने लगे है बेमानी
पैत्रिक घर द्वार
मायने खोते जा रहे सिवान
बीमार हो रहे बखरी
और खलिहान
पप्पू तो उड़ चले अमेरिका
बबलू भी चले ब्रिटेन
अम्मा और बाबु को
पूछता है कौन
बेबस वो चल पड़े गाँव की ओर
ले दादी की चटाई
और दद्दा का लालटेन

ज्यादा चाहने की लालच में
है कुछ टूट रहा
मानवीय संवेदनाओ से साथ
पीछे छूट रहा
लुप्त हो रही क्रमशः रिस्तो की मिठास
वो गाँव के चौपालों के rasile अहसास
सहानुभूति परोपकार प्यार व मस्ती
अपनापन कही गूम हो गया
पश्चिम का प्रभाव
हमारे समाज पर है
इस कदर हावी हो गया
की दम तोड़ते ओ गढ़ते नित
रिश्तो की नयी परिभाषा
जिनके बचने की दिखती
अब नहीं कोई आशा

संस्कारयुक्त शिछा के अभाव में
ये युवा नैतिक लछ्य से भटक जाते
अपने जनको को छोड़
देसी बिदेशी मेमो के साथ उड़ जाते
ऐश और भोग को
जीवन का आदर्श बनाते
मनो अपने माँ बाप से
अपने खो चुके बचपन का
बदला चुकाते
जिन्होंने बाजारवाद का दे वास्ता
छीन कर उनका बचपन
उनको दिखाया विकास का रास्ता
अपनी वन्छ्नाओ को उन पर लद्दा
सिखाया उनको कमाना ज्यादा
अस्तु
अब हमारे दोनों ही
में है जल भरा
कब तलक वो संभलेगा भला
आज हमें भी इस दिशा में सोचना होगा
नए सिरे से पुनः मंथन करना होगा
ऐसी स्थिति के लिए
हम भी कम नहीं जिम्मेदार
अपने बच्चे में पलते सपने हज़ार
और उन्हें किसी भी कीमत पर
पूरा करना चाहते है
बदले में उनके बचपन का
बलिदान मागते है
आज विज्ञानं भी
इस बात को मानता
की प्रकृति किसी के साथ
अन्याय नहीं करती
सबके अन्दर वो कोई एक
गुण विशेष भारती
उन गुणों को विकसित
करने के जगह
हम उन पर चलते है
अपनी मर्जी
जिसके बदले में वो हमें देते है सजा
बदल देते है एक सुसंगठित समाज की फिजा

अतः
शिछा ही नहीं संस्कार भी चाहिए
विकास की इस अंधी दौड़
में नैतिक मूल्यों की पतवार चाहिए

निर्मेश तभी रख पायेगे हम

एक मजबूत समाज की नीव

बेशक वो भी जी पायेगे

हमारे साथ जीवन सजीव !

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