देख बचवा
तोहार
नाम ईं
कम्पूटर
स्कूल मे
लिखा देहली
अब खूब
मन लगा के
तू पढ़ली
कुछ पइसा
देइ देहले
हाई
बाकी पगार
पर
देवे का
है कहीँ
कहते कहते
कुसुम
अपने बच्चे
के साथ
घर वापस
जा रही थी
मैले आँचल
से
अपने आँख
के कोरो से
बह रहे
आसुओं को
पोछे जा
रही थी
जित्तन
की
असमय मौत
उस उसे
बेवा बना
दिया था
तीनो बच्चों
के परवरिश
की
जिम्मेदारी
को उसके
कमजोर
कन्धों पर
डाल दिया
था
जित्तन
के जीतेजी
जिसे कभी
बाहर
निकलने
की जरूरत
तक
नहीं पड़ी
थी
आज मजबूरी
मे वह
घर घर
जाकर
बर्तन
माँज रही थी
एक सुनहरे
भविष्य
की आस मे
ज़माने
से बेखबर
अपने खून
पसीने की कमाई
को
इन तथाकथित
कुकुरमुत्ते
की तरह
गली गली मे
उग आये
नए नए
सब्जबाग दिखाते
कंप्यूटर
संस्थानों को
चढ़ा रही
थी
वरना नौवी
मे पढ़ रहे
एक बच्चे
की बिसात
ही
इस दृष्टिकोण
से क्या थी
पर उसे
लेकर
इन संस्थानों
के बिछाए
बिसात
पर वह
फसी जा
रही थी
अपनी जमा
पूँजी फूकते
एक दिवास्वप्न
देखते
आँखों
में एक
अंतहीन
सपने को
पाले जा
रही थी
डा ०
रमेश कुमार
निर्मेष