नित्य की भाँती
काशी के महाश्मसन की सिदियों से चदता
खानाबदोश की तरह
जीवन मरण की गुत्थियों से उलझता
पुनः सुलझाता
अंतस्तल में अंतर्द्वान्द्वा के दिए को जलाता बुझाता
गलियों से गुजरने को उद्यत
संभवतः रात्रि का द्वितीय पहर
आतिशबाजियों से पटा सन्नाटे को चीरता शहर
पास में मरघट
अपने अभीष्ट को साधता तांत्रिको का जमघट
कुल मिलकर समवेत में कह सकते है
हास्य और रुदन का मिश्रित स्वर
जीवन मरण का अद्भुत संगम
एक ओर घाट के ऊपर खुशियाँ जहा ले रही थी अग्डैया
सजी चहुँ ओर दीपो की लडिया
आधुनिक झालर और बत्तियां
वही दूसरी ओर गली के एक माकान में
दिखी कुछ स्याह परछियाँ
ध्यान से देखने पर पाया
मकान पर वृध्हाश्रम था लिखा
खिडकियों से झाकती दिखी
कुछ बुदी कातर और याचक निगाहें
झुकी कमर और कमजोर बाहें
उत्सुक्तावास अन्दर मैं प्रविष्ट हुआ
ख़ुशी के इस मौके पर मुझे देख
उनके अन्दर हुआ आशा का संचार
उनको लगा हूँ मैं कोई तारणहार
जो आया है उनके जीवन में
दीपावली की निशा में रौशनी जलाने
पर देख मेरे हाथ खाली
उनकी सोच लग गयी ठिकाने
मैं एकटक उनके बारे में अपनी उपयोगिता सोचता रहा
उनके लिए अपना अर्थ ढूढता रहा
उन किस्मत की मारी मों के बीच अपनी माँ को ढूढता रहा
जेब में मोबाइल लगातार घनघना रहा था
शायद घर से फोन आ रहा था
मनाने को त्यौहार
छोड़ने को पठाखे और अनार
कर उसे मैं स्विच ऑफ
उनके करीब बैठ गया लेकर लिहाफ
वस्तुतः मैं महाकाल के दर्शन के लिए आया था
इसीलिए विशेष कुछ साथ नहीं लाया था
चल्पदा उनसे बातों का दौर
टूटने लगा उनका मौन
कुछ ने अपनी व्यथा बेबाक सुनाई
अपने बहू बेटियों की बातें बताई
कुछ से उनके परिवार उनकी चेष्टाओं और उनके प्रति
उनके कर्तव्यों के बारे में पूछता रहा
घंटो उनके कष्टों से दो चार होता रहा
उनकी मौनता और उनके आसुओं में प्रतिउत्तर पता रहा
मैंने कहा माते ये कैसी है विवशता
चाह कर भी इन आँखों से आंसू नहीं है निकलता
देख ऐसी विपन्नता
शायद ये सूख चुके है
अपना मायने खो चुके है
हो गया है क्या इस आज की पिदी को
जीने पर चढ़ कर जो तोड़ती है सीदी को
क्यों परिचित नहीं वो इन बातो से
स्तन में दूध न होने पर भी लगाई रही होगी उन्हें अपने तन से
शायद कई बार दूध के बदले में स्तनों से रक्त भी रिसता रहा हो
अपने उस रक्त को भी उतने ही प्रेम से श्रद्धा व स्नेह से
बिना दर्द के जिसने उन्हें पिलाया हो
पर शायद ही कभी उन्हें अपने से दूर किया हो
जिस माँ ने उन्हें अपने रक्त मिश्रित दूध से सीचा है
उन्हें क्यों इन्होने अपने जीवन से उलीचा है
सिहर गया तन
हा हकार कर उठा मन
मैंने अपने अप को संभालने का किया प्रयास
क्यों टूटते दिख रहे सब आस
चारो और देख अत्म्रता स्वार्थपरता
यद् आती हमें बरबस जीवनमूल्यों से युक्त
अपने अतीत की सम्पन्नता
मै जानता था
उन्हें मै भी दे पाउँगा नहीं सिवाय
मीठे कुछ सहानुभूति के बोल
अशई मन से अपनी जेबे रहा था टटोल
चाँद रुपयों ने मेरी लाज बचाई
मैंने कहा माई
रख ले इसे आप आज
कल होगा कुछ साधनों के साथ पुनः मिलाप
देखता हु मै आपके घाओं पर कितना मलहम लगा पता हूँ
क्योकि मै अक्सर अपने विचारों को किये आत्मसात
सिमित संसाधनों के साथ
स्वयं को नितांत अकेला पाता हूँ
बुदी आखों के झरझर
आंसुओं ने मुझे किया विदा
मुझे लगा मैंने
दीपावली मना लिया
निर्मेश, आप तो वाकई बहुत अच्छा लिखते हैं. इस धार को बनाये रहें. कभी 'यदुकुल' पर भी आयें.
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