बुधवार, 12 जनवरी 2011

मीरा मांसी

प्रभात की बेला
कालबेल की असमय अनचाही ध्वनि
दूर हो चुकी थी अवनि
स्वयं को सहेज कर
दरवाजे को खोला
सामने एक अजनबी को पाया
लिए हाथों में एक थैला
बरसात के कारण
कपड़ा हो गया था जिसका मैला
तन भी लगभग हो गया था गीला
अन्दर आने को कहकर
बैठक तुरंत खोला
बदलने को दिया कपड़ा
चाय नाश्ते के उपरांत
उन्होंने आने का राज खोला

यादों के झुरमुटों में
बचपन की बातें
अक्सर माँ के साथ उठती
गिरती थी मीरा मासी की सांसे
सगी थी नहीं पर सगी से कम नहीं
दूसरे के गम के आगे
कभी अपने गम को समझा नहीं
जाड़े की नर्म धूप में
छत पर बैठ साथ में धूप सेकना
माँ के हर कम में
पूरी तन्मयता से हाथ बटाना
उनकी दिनचर्या में था शामिल
उनके सानिध्य में आसान
होता था हर कार्य मुश्किल
हम भले ही भूल जाएँ अपना जन्मदिन
भूल जाये मासी यह था नामुमकिन
हर बार एक नयी भेंट
अनवरत खुशी से
ढीली करती अपनी टेंट

माँ के असमय पयान से
हम सभी विचलित थे ही
पर मीरा मासी ने
माँ की कमी खलने दी ही नहीं
अपने आंचल में छिपा कर
हमें बहुत ही समझाया
जीभर कर प्यार और ममता लुटाया
मांसी ने इस कदर हम पर
स्नेह और अपनत्व बरसाया
हमारे चक्कर में कभी कभी
अपने परिवार को भी बिसराया
अपने बच्चो के साथ हमें भी
इस कदर प्यार किया
की माँ को लगभग भुलवा ही दिया

समय अबाध गति से चलता रहा
पापा का स्थानांतरण होता रहा
हम सभी अपने अपने कैरियर को
संभालने में व्यस्त रहे
मांसी के उपहार
हमें समय से मिलते रहे
आज वही उपहार मीरा मांसी के
छोटे भाई थे लेकर आये
साथ में एक दुखद समाचार भी लाये
मांसी रही नहीं दो वर्ष पूर्व ही
सुन के लगा
पैरों के नीचे जमीं ही नहीं
फिर ये उपहार
दो वर्षों से यही सज्जन भेजते थे
हम उनके पैर छूने को विवश थे
शायद उनकी कमी हमें
होने नहीं देना चाहते थे
पर अँधेरे में भी हमें
रखना नहीं चाहते थे
इसी से इस बार स्वयं
चल कर आये थे
आज पहली बार सही मायने में
हमें माँ के खोने का अहसास हुआ
पहली बार अनाथ
होने का आभास हुआ
एकबारगी लगा की काश
यह सत्य इसी तरह छिपा रहता
आशाओं की मृगतृष्णा में ही सही
मै जिया करता
मैं स्तब्ध कभी उनको
कभी उनके लाये उपहारों को देखता
इन अकथ अनकहे अनसुलझे
रिश्तों की डोर को समझता
अंत मैं पाता
इस तरह के रिश्तों को डोर
ही है हमारी संस्कृति
और हमारा शानी
रक्त के रिश्ते भी
भरते है जिनके आगे पानी

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