रविवार, 20 फ़रवरी 2011

दिखेगा आज भी बसंत परिपूर्ण

पप्पू तनी जल्दी से
नहाय धोई लो
पीला पजामा कुरता बकस मा रखा है
उसे पहिन लो
तनी खेतन से सरसों कई
पियरका फूल लई आयों
मंदिर चले के बा
पंडित जी का बुलावा आवा रहा
पूजन क मुहूरत निकल जइये
एहिलिये जल्दी करयो

सुबह सुबह माँ के इस
अनुनय से निद्रा भंग हुई
सुबह संग हुई
जागने पर देखा तो न माँ थी
न माँ का कोई अनुनय
रसोई से पत्नी करती रिक्की से विनय
बाबू जल्दी से तैयार हो लो
स्कूल की बस आ गयी होगी
यह टिफिन बैग में रख लो
अरे आप भी न जल्दी उठिए
ऑफिस नहीं जाना है क्या
चलिए तैयार होइए
मैंने कहा प्रिये क्यों उठा दिया
एक प्यारे सपने से क्यों जगा दिया
अपना प्यारा बचपन और बचपन का
प्यारा बसंत देख रहा था
उसमे मैं तुमको रीतिकालीन
नायिका के रूप में तलाश रहा था
कहते पुनः अपने अतीत के
स्वप्न में खो गया था

बसन्त ने देखे है कितने आयाम
त्रेतायुगीन बसंत था जहाँ निष्काम
वही द्वापर के बसंत में व्याप्त थी
चिरंतन सत्य और कर्मयोग से
पूरित कृष्ण की योगलीला
गोपियों की वेदना व विरहपिदा
मगध्कालीन बसंत बसंतसेना
और बसंतोत्सव से था परिपूर्ण
जिससे आज का बसंत है बेशक अपूर्ण
कालांतर में बसंत को सूर के बाद
पद्माकर और केशवदास ने गहनता से देखा
महादेवी पन्त आदि ने तो इसकी
खींच दी जीवनरेखा
भ्रमर का गुंजन कोयल की कूक
पनघट की नायिका को देखते हम मूक
वेदना विरही नायिका की
उठाती हिय में हूक
उन्माद में डूबी प्रेयसी
महकती फूलो का गुच्छा
झर झर बहते हुए झरने
कल कल करती नदियाँ
दृश्य था मनोरम कितना अच्छा
पहाड़ो का सौंदर्य अप्रितम
आमंत्रण देती अमावस की रातें भी तम
बासंती बयार कर देती
प्रेमियों को मदहोश
परागित पंखुडिया और सौरभ की
भीनी सुगंध उड़ाती हमारे होश
बृक्षों से गिरते पत्तों की लड़ियाँ
पुनः जीवन को जीवंत करती
नन्हे फूल और कोमल पत्तियां

एकबारगी हमें लगता है
हमारे संपन्न प्यारे अतीत का सौरभ बसंत
नित पा रहा है कंक्रीट के
जंगलों में असमय अपना अंत
ध्यान से परखने पर हम पाते है
बसंत की जीवन्तता को
दुसरे रूपों में देखते है
परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत सत्य है
बसंत भी इससे अछूता नहीं है
बसंत आज भी विद्यमान है
उसका पूर्ण सौंदर्य आज भी विराजमान है
फर्क बस इतना है कि
इसके प्रारूप बदल गए है
नए प्रतिमान सज रहे है
आओ देखे बसंत के बदलते
रूपों और प्रतिमानों को
इसके नए पैमाने को
स्कूल कि बजते ही बेल
तमाम बच्चों के आह्लादित मुखमंडल
और खुशियों से भरी रेलमरेल
हर बच्चा एक फूल और स्कूल
उपवन सा दिखता है
बच्चों से भरा आंगन
मधुवन सा दिखता है
साथही बसंत कालेज के परिसरों में
भी सिद्दत से दिखता है
जो हमें अनायास ही खिचता है
जहाँ पर प्रकृति ने पहाड़ो झरनों
व बागों से बासंती उल्लास को
बाहर निकाल बिखेरा है यैवन का
सौंदर्य अनुपम
कराती शोख चंचल अदाओ के दर्शन
मल्तिकोम्प्लेक्स में युवाओं के मेले
रंगीन माडर्न ड्रेस्सों से घिरे
चाट चाव्मिन और स्नेक्स के ठेले
आर्चिज गैलेरी में दिखते युवा
बसंत के पर्याय को चुनते
तमाम मोहक कार्डो पर इठलाते झूमते
बड़े बड़े पेंटिंग के रूप में
ड्र्यिंग रूम में सजते
आज भी प्रयासरत दीखता है बसंत
अपना अस्तित्वा बचाते
बसंत कहीं खोया नहीं है
पर परिवर्तन कि शाश्वत अवधारणा
से भी अछूता नहीं है
सौंदर्य उर्जा और नूतन
ताजगी से परिपूर्ण
दिखेगा आज भी बसंत संपूर्ण

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