गुरुवार, 29 सितंबर 2011







आज प्रातः भोर से ही
प्रकृति के तीव्र वर्षणका प्रकोप
अनवरत जारी था
बारिस की तीव्रता का
यह आलम था कि
नीचे बगीचे में आम पर
नीम के पेड़ों का
घर्षण भारी था

अभी तक युवा आम जो
कल शाम तक अपनी
तरुणाई पर इठला रहा था
पुरवैये के मस्त झोकों में
मस्ती से झूम रहा था
किसी अन्य को कुछ नहीं
समझ रहा था
आज मौन नतमस्तक होकर
मानो वयस्क नीम से
पनाह मांग रहा था
नीम के तीव्र घर्षण से जब
एक ओर वह ज्यादा ही
झुक जाता था
लगता कि अब गिरा तब गिरा
तभी नीम की दूसरी डालों का
पाकर सहारा वह
किसी तरह संभल जाता था

जैसे एक पिता अपने
रो रहे बच्चे को दुलारने का
प्रयास करता
हवा में उछल कर खुशी
जाहिर करता
उसे गिरने से पहले ही गोद में
ले बलैया खूब लेता
इसी बीच बच्चा कभी हँसता
कभी रोता
पर अंत में निश्चिन्त हो
पिता के कंधे से लग
आराम से सो जाता

कुछ ऐसा ही इन सजीवों
मगर बेजुबानों का खेल चल रहा था
छत पर बाने किचेन गार्डेन में
में पौधों के बीच विचारमग्न बैठा था
प्रकृति के इस अनुपम नैसर्गिक
खेल का आनंद ले रहा था
साथ ही प्रकृति अपने इन
उपादानों के माध्यम से
जो हमें सन्देश दे रही थी
उस पर मेरे अंतर्मन में
बहस चल रही थी

उड़ ले पंख लगा कर चाहे
कितनी भी आज की युवा पीढ़ी
अनुभव रत अतित से
खेल ले चाहे कितना भी

खेल साप सीढ़ी

पर आज भी उसके पास

जवाब नहीं है

अतीत की सम्पन्नता का

साधनों के अभाव में भी

कालजयी ऐतिहासिक इमारतों के

निर्माण की गाथा का

कैसे अतीत के लोगो ने

विशाल पहाड़ों पर किले बनवाने हेतु

विशाल शिलाखंडो को

शीर्ष तक पहुचाया होगा

आज तक अभेद बने है वे

आखिर कौन सा जोड़

लगाया होगा

किन क्रेनो से उन्हें ऊपर

पहुचाया होगा

दक्षिण के मंदिरों में विशालतम

प्रस्तर प्रखंडो का उपयोग

जिसके परिवहन पर ही आज

पूरी तन्मयता से शोध जारी है

है नहीं केवल एक संयोग

आदि ऐसे कितने नमूने

अतीत कि वरीयता वर्तमान पर

सिद्ध करते है

फिर भी हम अज्ञात और

अज्ञान बने फिरते है

हर दृष्टिकोण से अपने

समृद्ध और संपन्न अतीत पर

गर्व करने के बजाय

हम उस पर भरोसा

नहीं करते है

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