शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

फुलवा



आज फुलवा
कुछ ज्यादा ही जोश में
अपना करतब दिखा रही थी
रस्सी पर इठला इठला कर
चल रही थी
उसका चार वर्षीया भाई
जिसका नाम तो हथौड़ा सिंह था
मगर सत्य यह था की वह हड्डियों का
ढांचा ही नजर आ रहा था
खूब उछल उछल कर पूरे उत्साह से
कलाबाजियां खा रहा था


माँ ढोलक बजा रही थी
बीच बीच में पैसे के लिए कटोरा लेकर
लोगो के बीच में जा रही थी
पिता जाजू जोश में नगाड़ा
बजाते बजाते से एकरिंग कर रहा था
साहेबान मेहरबान कदरदान
यदि आज अपने दिल खोलकर
पैसे से हमारा उत्साह बढाया
तो कोई शक नहीं कि
इस दीपावली के उपरांत पूरे साल
लक्ष्मी कि आप पर होगी छाया


फुलवा माँ के
खाली कटोरे को देख
दूने उत्साह से
करतब दिखाने में लग जाती
हर बार पहले से ज्यादा सफाई से
करतब दिखने का प्रयास करती
कि शायद अबकी बार कटोरे में कुछ
और सिक्के पड़ जाये तो
उनकी भी दीपावली कायदे से
मन जाये
हथौड़ा सिंह कटोरे की ओर देख
निराश हो जाता
बापू कि डाट पर पुनः करतब
दिखाने में लग जाता
माँ का दिल भी अपने नन्हे हथौड़ा की
बेबसी देख भर जाता


जिज्ञासवास कहे या
अपने स्वभाव से लाचार
खेल समाप्ति के उपरांत
मै उनके बीच था
पूछने पर पता चला बच्चो को
आज केवल बिना दूध कि चाय
पिला कर लाई थी
अच्छी कमाई पर शाम को
मिठाई खिलौने फुलझडियों और
पटाखे की बात तय कर आयी थी


पर लोगो कि उत्साह हीनता देख
जाजू का दिल भी बैठ गया
बोलते बोलपरते गला रूद्ध गया
किसी तरह तमाशा समाप्त कर
वे अपना सामान समेटने लगे
धीरे धीरे लोग भी जाने लगे
कुछ बच्चों ने पिसान और
चावल घर से लाकर दिया
पर नकद पैसों का तो जैसे
अकाल ही पड़ गया था
बच्चों का ध्यान था कि पास में लगे
मिठाई और पटाखे कि दुकान से
हट ही नहीं रहा था


सामान के साथ चंद फैले सिक्के को समेट
जाजू अपने कुनबे के साथ हताश
डेरे पर जाने लगा
मैंने आवाज देकर उन्हें रोका
अपने जेब में पड़े कुछ सिक्कों और
नोटों को उनको सौपा


उस छड बच्चों के चेहरों पर जो
चमक मैंने देखी
उसके सामने पूरे दीपावली की चमक भी
मुझे लग रही थी फीकी

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