गुरुवार, 20 सितंबर 2012

गंगा



गंगा का निर्जीव शरीर

सफ़ेद कफ़न में लपेटा जा रहा था

मै भी उसकी शवयात्रा में

जाने के निमित्त वहां पहुच चुका था

उसकी पत्नी बच्चों के साथ

दहाड़ मार कर रो रही थी

लोगो के बीच में तरह तरह क़ी

बाते हो रही थी



एक कह रहा था

बेचारा रात भर तो रिक्शा चलाता

दिनभर ऊ सहबवा के बंगला में

सरकारी नौकरी के लालच में खटता

आखिर एक गरीब का

शरीर कितना सहता

यही से एका ई हाल भवा

और हार्टफेल होई गवा



मौन मेरे जेहन में

सप्ताह पूर्व क़ी बाते

एकाएक पुनः ताजी हो गयी थी

मेरे अशांत मन को

एकदम मंथित कर रही थी

जब भीषण गर्मी और उमस में

नंगे बदन गंगा

एक मैला गमछा लपेटे था

अपने साहब के बगीचे में

तेजी से फावड़ा चलाये जा रहा था

जबकि बंगले के अन्दर

ए सी धुआंधार चल रहा था

यह देख में हैरान था

क़ी अभी कल ही तो वह

तीव्र बुखार के साथ

मेरे पास दावा के लिए आया था

फिर आज इस भीषण तपिश में

क्यों इस तरह कार्यरत था

मेरे पूछने पर उसने बताया कि

भैया साहेब कहिन है कि

प्याज के रोपाई का समय

निकला जा रहा

गंगा जल्दी से खेतवा तैयार कर

बेहन का जुगाड़ करा



बेहन भी जुगाड़ करने के

उसके साहेब के फैसले पर

पता नहीं क्यों और क्या

में सोच रहा था

अंत में निरुत्तर

आगे बढ़ गया था



पिछले आठ सालों से

उस साहेब के सरकारी

नौकरी के आश्वासन पर

गंगा दिन भर अपने

उस तथाकथित साहेब के

बंगले पर खटता रहा

अपने परिवार के भरण पोषण के लिए

रात में रिक्शा चलाता रहा

अपनी संभावनाओं से

भरी जवानी को

सुखद बुढ़ापे कि चाह में

तबियत से खोता रहा



क्रमशः अधेड़ हो रहे

उस मुर्ख को शायद अपनी

मूल्यवान जवानी कि कीमत का

अहसास नहीं था

कल यदि बुढ़ापे में

माना कुछ पा ही लिया तो

क्या उसके जवानी के दिन

वापस आ जायेंगे

यह भी सोचा नहीं था



अक्सर तबियत

उन्नीस बीस होने पर

मेरे घर के बाहर

मेरे आने कि प्रतीक्षा करता

आने पर मेरा उससे

हाल चाल होता

हर बार मुख्य बीमारी के दवा के साथ

ताकत के गोलियों क़ी

उसकी मांग होती

मेरे पैसा न लेने के कारण

मेरे लिए खटने क़ी

उसकी चाह हमेशा होती

जो कभी पूरी नहीं होती



जब कभी बाहर उससे

उसके रिक्शे के साथ

मेरी मुलाकात होती

भैया आवा कहाँ चली

बस यही उसकी

आवाज होती



एकदिन आखिर मैंने

उससे पूछ ही लिया था

गंगा आखिर कब तलक

वांछित नौकरी के लिए

इस तरह जीवन से

जद्दोजहद जारी रहेगी

सुखमय भविष्य के लिए

आशाओं और संभावनाओं से भरी

वर्तमान पीड़ित और

अपमानित होती रहेगी



बोला भैया

आप ही के बताये

कर्मन्येवा अधिकारेस्तु

मन फलेषु कदचिना के

रास्ते पर ही तो चल रहा था

निरुत्तर आज में

उसके गीता श्लोक क़ी

उक्त भौतिक व्याख्या का

एक ओर जहाँ दुखद परिणाम

देख रहा था

वही दूसरी ओर

उसके साथ अपने आप पर भी

खीज रहा था



डा. रमेश कुमार निर्मेश

गंगा



गंगा का निर्जीव शरीर

सफ़ेद कफ़न में लपेटा जा रहा था

मै भी उसकी शवयात्रा में

जाने के निमित्त वहां पहुच चुका था

उसकी पत्नी बच्चों के साथ

दहाड़ मार कर रो रही थी

लोगो के बीच में तरह तरह क़ी

बाते हो रही थी



एक कह रहा था

बेचारा रात भर तो रिक्शा चलाता

दिनभर ऊ सहबवा के बंगला में

सरकारी नौकरी के लालच में खटता

आखिर एक गरीब का

शरीर कितना सहता

यही से एका ई हाल भवा

और हार्टफेल होई गवा



मौन मेरे जेहन में

सप्ताह पूर्व क़ी बाते

एकाएक पुनः ताजी हो गयी थी

मेरे अशांत मन को

एकदम मंथित कर रही थी

जब भीषण गर्मी और उमस में

नंगे बदन गंगा

एक मैला गमछा लपेटे था

अपने साहब के बगीचे में

तेजी से फावड़ा चलाये जा रहा था

जबकि बंगले के अन्दर

ए सी धुआंधार चल रहा था

यह देख में हैरान था

क़ी अभी कल ही तो वह

तीव्र बुखार के साथ

मेरे पास दावा के लिए आया था

फिर आज इस भीषण तपिश में

क्यों इस तरह कार्यरत था

मेरे पूछने पर उसने बताया कि

भैया साहेब कहिन है कि

प्याज के रोपाई का समय

निकला जा रहा

गंगा जल्दी से खेतवा तैयार कर

बेहन का जुगाड़ करा



बेहन भी जुगाड़ करने के

उसके साहेब के फैसले पर

पता नहीं क्यों और क्या

में सोच रहा था

अंत में निरुत्तर

आगे बढ़ गया था



पिछले आठ सालों से

उस साहेब के सरकारी

नौकरी के आश्वासन पर

गंगा दिन भर अपने

उस तथाकथित साहेब के

बंगले पर खटता रहा

अपने परिवार के भरण पोषण के लिए

रात में रिक्शा चलाता रहा

अपनी संभावनाओं से

भरी जवानी को

सुखद बुढ़ापे कि चाह में

तबियत से खोता रहा



क्रमशः अधेड़ हो रहे

उस मुर्ख को शायद अपनी

मूल्यवान जवानी कि कीमत का

अहसास नहीं था

कल यदि बुढ़ापे में

माना कुछ पा ही लिया तो

क्या उसके जवानी के दिन

वापस आ जायेंगे

यह भी सोचा नहीं था



अक्सर तबियत

उन्नीस बीस होने पर

मेरे घर के बाहर

मेरे आने कि प्रतीक्षा करता

आने पर मेरा उससे

हाल चाल होता

हर बार मुख्य बीमारी के दवा के साथ

ताकत के गोलियों क़ी

उसकी मांग होती

मेरे पैसा न लेने के कारण

मेरे लिए खटने क़ी

उसकी चाह हमेशा होती

जो कभी पूरी नहीं होती



जब कभी बाहर उससे

उसके रिक्शे के साथ

मेरी मुलाकात होती

भैया आवा कहाँ चली

बस यही उसकी

आवाज होती



एकदिन आखिर मैंने

उससे पूछ ही लिया था

गंगा आखिर कब तलक

वांछित नौकरी के लिए

इस तरह जीवन से

जद्दोजहद जारी रहेगी

सुखमय भविष्य के लिए

आशाओं और संभावनाओं से भरी

वर्तमान पीड़ित और

अपमानित होती रहेगी



बोला भैया

आप ही के बताये

कर्मन्येवा अधिकारेस्तु

मन फलेषु कदचिना के

रास्ते पर ही तो चल रहा था

निरुत्तर आज में

उसके गीता श्लोक क़ी

उक्त भौतिक व्याख्या का

एक ओर जहाँ दुखद परिणाम

देख रहा था

वही दूसरी ओर

उसके साथ अपने आप पर भी

खीज रहा था



डा. रमेश कुमार निर्मेश

शनिवार, 8 सितंबर 2012

नदी डूब गयी: आज का युधिष्ठर

नदी डूब गयी: आज का युधिष्ठर: आज का युधिष्ठर घाट क़ी सीढियों पर उदास बैठे राजू के सामने सारा अतीत घूम रहा था बापू क़ी मौत के बाद या बापू के रहते हुए भी मामा ने किस तरह प...

आज का युधिष्ठर

आज का युधिष्ठर

घाट क़ी सीढियों पर
उदास बैठे राजू के सामने
सारा अतीत घूम रहा था
बापू क़ी मौत के बाद
या बापू के रहते हुए भी
मामा ने किस तरह
पूरे परिवार को संभाला था
उसके सभी बहनों का
विवाह करते करते
बापू तो चल बसे थे
राजू के लिए कुछ खास
नहीं  छोड़ गए थे

दिन बीतते गए
राजू भी विवाह के योग्य हुआ
विवाह के पूर्व मामा ने
उसके टूटे फूटे  घर को  बनवाने का
फैसला लिया

सीमेंट लेन के लिए
हजार रूपये राजू को दिया
स्वयं ईट लेन के लिए
भत्ते का रुख किया
बीच में पुराने यारों ने हाथ पकड़
राजू को न चाहते हुए
फड पर बैठा लिया
महाभारत के  युधिष्ठर  के निति का
दुहाई दिया
उसकी लगभग छूट  चुकी
जुए क़ी आदत ने भी जोर मारा
राजू फड पर बैठा
शीघ्र ही हार चुका था रुपया सारा
उसके पाव तले का  जमीन  खिसक गया था
जितने वाला रुपया लेकर
आगे चल दिया था
हताश राजू भी उसके
पीछे पीछे चल दिया था

बिना परिश्रम
अपने रुपये को बढ़ने के चाह ने
राजू को आज कितना
दीन और हीन बना दिया था
यहाँ तक क़ी उसे जुए क़ी फड तक
एक बार पुनः पंहुचा दिया था
कैसे करेगा वह देवता समान
अपने मामा का  सामना
यह सोच वह एकदम से
घबरा गया था
मामा के विश्वास को
एक बार पुनः चोट पहुचाने का गम
उसे भीतर तक साल रहा था
सोच रहा था कि
किसी तरह यह पैसा इस बार
वापस आ गया कही
तो हे भगवन आपकी कसम
अब जुए कि ओर कभी
वह ताकेगा नहीं
चलते चलते आखिर मयखाने में
उससे मुलाकात हुई
राजी कि बाछें खिल गयी
राजू अपने पैसे कि वापसी कि उम्मेद्मे
उससे एक बार और खेलने कि
बार बार अपील कि
अबे खेल ले भैया खेल ले भैया
कि अनेक विनती कि
अंततः नशे में टुन्न होने पर
वह खेलने के लिए पुनः
तैयार हो गया था
शायद भाग्य को भी
राजू कि दशा पर तरस आ गया था
ईस बार
राजू के पत्ते पड़ने लगे थे
एक एक कर उसके रुपये
वापस आने लगे थे

पाँच सौ रूपये ऊपर से
और भी आ गे थे
धीरे धीरे लोग घर जाने लगे थे
उसमे से दो सौ राजू ने उसे और दिया
साथ ही वापस जाकर और
पीने का सलाह दिया
बाकी पैसे लेकर उसने स्वयं
बाजार का रुख किया

रास्ते में राजू
सोचता जा रहा था
कैसी मूर्खता और कैसी विडम्बना है कि
अपने पैसा जब अपने पास था
उसके वेलू  और उसकी अस्मत का
उसे अहसास नहीं था
देखते ही देखते जब वह
दूसरे कि जेब में जाने लगा था
उसकी कीमत का
उसे भास हुआ था

जीता तो कई बार था वह
मगर इस जीत पर
आज का वह युधिष्ठर
बहुत ही इतरा रहा था
मूर्ख अपने ही पैसे क़ी वापसी पर
आज जश्न मना रहा था
सोच रहा था कि
कितनी मारकाट के बाद
महाभारत के युधिष्ठर  का
सम्मान बचा रहा था
उसने तो अपने सम्मान को बस
चुटकियों  में ही वापस
हासिल कर लिया था
तुलना करने पर वह अपने आप को
द्वापर के युधिष्ठर  से श्रेष्ट पा रहा था
आज के बाद उसने फड पर
न बैठने कि कसम ली
हमेशा  के लिए जुए को
जैरामजी की कही