गंगा का निर्जीव शरीर
सफ़ेद कफ़न में लपेटा जा रहा था
मै भी उसकी शवयात्रा में
जाने के निमित्त वहां पहुच चुका था
उसकी पत्नी बच्चों के साथ
दहाड़ मार कर रो रही थी
लोगो के बीच में तरह तरह क़ी
बाते हो रही थी
एक कह रहा था
बेचारा रात भर तो रिक्शा चलाता
दिनभर ऊ सहबवा के बंगला में
सरकारी नौकरी के लालच में खटता
आखिर एक गरीब का
शरीर कितना सहता
यही से एका ई हाल भवा
और हार्टफेल होई गवा
मौन मेरे जेहन में
सप्ताह पूर्व क़ी बाते
एकाएक पुनः ताजी हो गयी थी
मेरे अशांत मन को
एकदम मंथित कर रही थी
जब भीषण गर्मी और उमस में
नंगे बदन गंगा
एक मैला गमछा लपेटे था
अपने साहब के बगीचे में
तेजी से फावड़ा चलाये जा रहा था
जबकि बंगले के अन्दर
ए सी धुआंधार चल रहा था
यह देख में हैरान था
क़ी अभी कल ही तो वह
तीव्र बुखार के साथ
मेरे पास दावा के लिए आया था
फिर आज इस भीषण तपिश में
क्यों इस तरह कार्यरत था
मेरे पूछने पर उसने बताया कि
भैया साहेब कहिन है कि
प्याज के रोपाई का समय
निकला जा रहा
गंगा जल्दी से खेतवा तैयार कर
बेहन का जुगाड़ करा
बेहन भी जुगाड़ करने के
उसके साहेब के फैसले पर
पता नहीं क्यों और क्या
में सोच रहा था
अंत में निरुत्तर
आगे बढ़ गया था
पिछले आठ सालों से
उस साहेब के सरकारी
नौकरी के आश्वासन पर
गंगा दिन भर अपने
उस तथाकथित साहेब के
बंगले पर खटता रहा
अपने परिवार के भरण पोषण के लिए
रात में रिक्शा चलाता रहा
अपनी संभावनाओं से
भरी जवानी को
सुखद बुढ़ापे कि चाह में
तबियत से खोता रहा
क्रमशः अधेड़ हो रहे
उस मुर्ख को शायद अपनी
मूल्यवान जवानी कि कीमत का
अहसास नहीं था
कल यदि बुढ़ापे में
माना कुछ पा ही लिया तो
क्या उसके जवानी के दिन
वापस आ जायेंगे
यह भी सोचा नहीं था
अक्सर तबियत
उन्नीस बीस होने पर
मेरे घर के बाहर
मेरे आने कि प्रतीक्षा करता
आने पर मेरा उससे
हाल चाल होता
हर बार मुख्य बीमारी के दवा के साथ
ताकत के गोलियों क़ी
उसकी मांग होती
मेरे पैसा न लेने के कारण
मेरे लिए खटने क़ी
उसकी चाह हमेशा होती
जो कभी पूरी नहीं होती
जब कभी बाहर उससे
उसके रिक्शे के साथ
मेरी मुलाकात होती
भैया आवा कहाँ चली
बस यही उसकी
आवाज होती
एकदिन आखिर मैंने
उससे पूछ ही लिया था
गंगा आखिर कब तलक
वांछित नौकरी के लिए
इस तरह जीवन से
जद्दोजहद जारी रहेगी
सुखमय भविष्य के लिए
आशाओं और संभावनाओं से भरी
वर्तमान पीड़ित और
अपमानित होती रहेगी
बोला भैया
आप ही के बताये
कर्मन्येवा अधिकारेस्तु
मन फलेषु कदचिना के
रास्ते पर ही तो चल रहा था
निरुत्तर आज में
उसके गीता श्लोक क़ी
उक्त भौतिक व्याख्या का
एक ओर जहाँ दुखद परिणाम
देख रहा था
वही दूसरी ओर
उसके साथ अपने आप पर भी
खीज रहा था
डा. रमेश कुमार निर्मेश