शनिवार, 6 अक्तूबर 2012
लत
लत
अबे रुक कहाँ जा रहा है
चल निकल पैसा
ठीक अभी चलना है
कहते एक ने
दूसरे का गला पकड़ लिया था
दूसरा बड़े ही कातर स्वर में
रिरिया रहा था
झगड़े के मध्य हो रही
बातचीत से पता चला
एक का नाम था धन्नू
दूसरे का शीतला
काल रात धन्नू ने
शीतला के साथ
शीतला के पैसे से
भदैनी के देशी ठीके पर
छक कर दारू पिया था
जीवन का असीम
आनंद लिया था
आज सबेरे ही
पुनः शीतला से धन्नू का
अमन सामना हो गया था
मै भी अपनी लम्बी वाक से
वापस आ रहा था
धन्नू बिलबिला रहा था
भैया पैसा नहीं हौ
रहेन देब
कौनो और दिन
तोहके पिया देब
ई जेब में तो पैसा
दिख रहा है
साले हमको बेवकूफ
बना रहा है
चल चल कहते शीतला ने
अपने मजबूत हाथो से
जबरन धन्नू के हाथों को
रख दिया ऐठ कर
दम लेकर ही माना
पूरा पैसा निकाल कर
शीताला भैया
ई माई के इन्हालेर क पैसा हौ
काल रतिए से माई का साँस
बड़ी तेज फूलत हौ
आपण त काल कामे न लागल
एही वदे काल तोहर पीयल
चच्चा से उधार लैके
दवाई वदे जात हई
भैया दै द पइसवा
माई जोहत होई
चलबे क़ी नाही
साले बेवकूफ बनावत हौवे
नाही त हम जात हई
अकेल्वे पिये
कहते शीतला
उसके पैसे को लिए
अकेले ही ठीके क़ी ओर
निकल गया
बलिष्ठ शीतला के मुकाबले
कमजोर धन्नू
बेदम और हताश
घर क़ी ओर चल पड़ा
घर में कदम रखते ही
माँ क़ी आवाज
उसके कानो में पड़ी
बगल में उसकी अन्व्याहता बहन
माँ को थामे थी खड़ी
आ गईला बचवा
जल्दी से इन्हेलरवा खोला
दम घुटत आ
हमारे मुंहवा में लगावा
धन्नू संज्ञाशून्य
अपने खाली हाथो के साथ
माँ को निहार रहा था
माँ क़ी आशा से भरी निगाहों में
उसके खाली हाथो को देख
आयी हताशा को
पहचान रहा था
माँ क़ी बेचैनी के साथ
क्रमशः उखड़ती साँस को
किंकर्तव्य विमूढ़
असहाय देख रहा था
मन ही मन एक
दृढसंकल्प के साथ
पश्चाताप के औसुओं से
स्वयं को कोस और
भिगो रहा था
डा-रमेश कुमार निर्मेश
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