मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

दुशाला

ड्धर कई दिनों से

भयंकर पूस की ठण्ड में

दिनेश माँ को मंदिर

सत्संग जाने में हो रहे

कष्टों को देख रहा था

मगर लाचार

अपनी सीमित आय के कारण

कुछ सकारात्मक पहल

कर नहीं प् रहा था



बापू की मौत के बाद

अब यही सब माँ के

समय काटने का सहारा था

वरना बहू को भी बड़ी उमंग से

माँ ने ब्याह कर लाया था

पर जैसा की होता आया था

बहू से उसने कुछ खास

सुख नहीं पाया था



दिनेश दोनों के बीच

किसी तरह सेतु और संतुलन

बनाने का प्रयास कर

अपनी गाड़ी चलाता रहा

हर बार माँ को ही पीछे हट

अपने अरमानो का

गला घोटते पाया था



फैक्ट्री से निकलते हुए

दिनेश अपनी तनख्वाह के

रुपये गिन रहा था

माँ को हो रहे कष्ट के बारे में

सोचते हुए माँ से आज एक

बढ़िया गरम दुशाला लेकर

आने का सुबह ही

वादा कर आया था

तभी रास्ते में मोबाइल घनघनाया

उधर से फोन पर

पत्नी को पाया



मेरी माँ आज शाम को

आपकी माँ को देखने आ रही है

कुछ पोते पोतियों को भी

अपने साथ ला रही है

नाश्ते में चुरा मटर और गाजर के

हलवे का पत्नी से फरमान पाया

ऊसका मन झुझलाया

मरता क्या न करता

सभी समानो के साथ फिर भी

अपनी माँ के लिए

भविष्य के वित्तीय संकतो से अंजान

एक बढ़िया गरम दुशाला

आखिर खरीद ही लिया

और देखते ही देखते

घर आ गया



पत्नी ने शीघ्रता से आगे बढ़

उसके हाथ के बोझ को हल्का किया

महंगा बढ़िया दुशाला देख

उसका दिल बाग बाग हो गया

तुरन्त उसे अपनी माँ को

ओढ़ते हुए बोली

देखो मम्मी आपके दामाद

मेरे दिल की बात

कितनी जल्दी जान जाते है

सच ये आपको कितने मानते है

आपके लिए कुछ न कुछ

करते ही रहते है

इसीलिये तो सभी रिश्तेदार

हमसे इतना जलते है



सामने दिनेश के माँ

खामोश खड़ी पूरे घटनाक्रम का

मूर्तिवत अध्ययन कर रही थी

अपने बच्चे के अरमानो की होली

जलते हुए बेबस देख रही थी

साथ ही दिनेश की आँखों में

अपने लिये एक विशेष

तड़प भी पा रही थी



उसे अपराधबोध से

बचाने के लिए

उसे आँखों ही आँखों में

दिलासा दे रही थी

साथ ही बहू के माँ के सामने

बहू के तरोफो के पुल भी

धाराप्रवाह बाधे चली

जा रही थी



निर्मेश

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