जून की तपती
दोपहरी
आकाश से अनल की
वारिश हो रही
हो रही
बिजली का बिल जमा कर
सर पर गमछा और
टोपी के साथ
काला चश्मा लगाये
मै घर वापस आ रहा था
तिस पर भी
भीषण उमस और जलन
के कारण
एक पेड़ की छाँव
तलाश रहा था
तभी नवनिर्मित
सड़क पर बने डिवाइडरो पर
मेरी नजर गयी
दो मजदूर एक वृद्ध
और एक किशोर
नंगे सर और बदन
केवल सैंडो गंजी में
काले और पीले रंग के
पेंट कर रहे थे
पता नहीं क्यों वे मुझे
भयभीत कर रहे थे
भीषण तपिश के कारण
मुझे लगा कि वे
बेहोश होकर
अभी गिर पड़ेंगे
पर वे थे कि अपने
काम में मगन
कान में इयरफोन लगाये
गंजी के गर्भ में
मोबाइल डाले
तन्मयता से अपने कार्य
का निष्पादन करते हुए
गाने सुन रहे थे
मै एक पेड़ की
छाँव में खड़ा
थोड़ा आराम फरमाते
प्रकृति की इन
विसंगतियों
पर विचारमग्न था
साधन संपन्न
होने के बाद भी
भीषण लू और तपिश
मुझे मारे जा रहे थे
जबकि साधन विहीन
प्रतीत वह
सब मस्त थे
निष्कर्ष
वस्तुतः प्रकृति
किसी के साथ अन्याय
नही करती
पुरुषार्थ मद से प्राप्त
साधन सम्पन्नता
पर जहाँ हमें
गुमान होता है
सच्चे अर्थों में वही हमने
अपने आप को
प्रकृति से बहुत दूर
कर लिया है
प्रकृति से
सामंजस्यता
के अभाव ने हमें
लगभग साधनविहीन
बना दिया है
वही प्रकृति के
सानिध्य व
सामंजस्य ने उन्हें
वास्तविक
प्राकृतिक सम्पन्नता से
युक्त कर रखा है
जहाँ उल्लास है कि
कभी थमता नहीं
साथ ही पराभव
दूर तक कहीं
फटकता नहीं
साधन सम्पन्नता
और विपन्नता के बीच
अंतर्मन में अंतर्द्वंद
अनवरत जारी था
उनकी साधन सम्पन्नता
मेरे प्रबल साधनों पर
भारी प्रतीत था
इतना सब
प्राप्य होने के बाद भी
आज पहली बार
मैं अपने आपको
ठगा और
साधनविहीन
पा रहा था
निर्मेष
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