बुधवार, 23 नवंबर 2011

पगली

पति के असमय की मौत से
किसी तरह वह ऊबर चुकी थी
बेटियों के हाथ पीले करने के बाद
फौज से कमीशन लेकर आये बेटे विकास के
विवाह की तैयारी चल रही थी
तभी विकास के सीमा पर
शहादत की खबर ने
उसे भीतर तक झकझोर कर तोड़ दिया
उसके अब और जीने की इच्छा को
समाप्त ही कर दिया

अभी कल तक तो बहू को लेकर
कितने ताने बाने बुन रही थी
बहू के साथ सुखमय भविष्य के
मीठे सपने देख रही थी
पर नियति के खेल के आधीन
कितने दिनों तक वह रोती रही
घर के हर कोनो खेत खालिहोनो में
जाकर पागलो की तरह
अपने कलेजे के टुकड़े को खोजती रही

किसी तरह बेटियों का सहारा पाकर
दामादों को अपनी नैया का पतवार बनाकर
धीरे धीरे जीवन की नैया को
आंसुओं के समुन्दर में
किसी तरह खेती रही

समय अबाध गति से चलता रहा
उसके पास की जमा पूंजी क्रमशः
समाप्त हो रही थी
तीस चालीस कट्टे खेत की
ही पूंजी बची थी
बेटियों के साथ दामादों की
भरपूर नजर उसी पर थी
बटाई से मिले अनाज
दोनों बेटियों की बीच बट जाती
वह एक दूसरे पर बोझ बनी
कभी बड़ी के यहाँ तो
कभी छोटी के यहाँ
लावारिसों की तरह घूमती रहती
जैसे ही किसी एक के यहाँ पहुँचती
जलपान और शिष्टाचार के पूर्व ही
कब जाओगी माँ
बेशर्मी से बेटियां जब पूछती
पनियल नज़रों से शून्य में
ताकते हुए उसे शिवबरन नजर आता
मैके जब वह जाती
कब अओगी कह कर वह
उदास हो जाता
उन दिनों को याद कर आज भी
उसका जी भर आता

कभी सोचा नहीं था कि
ऐसे भी दिन देखना होगा
सब कुछ रहते हुए भी
दर दर भटकना होगा
आज अगर बेटा जीवित होता
कम से कम जीवन का ठहराव होता
कितना भी बुरा होता

वह अपनों के लिए एक
अवांछित वस्तु बन चुकी थी
जिसकी उपयोगिता सबके लिए
समाप्त हो गयी थी
सबकी नजर बस उसके खेत और
मकान पर ही गडी थी

इसी कलह से ऊबकर
साँझ होते होते उसने अपने
गाँव की ओर रुख किया
जाकर वहां देखा तो सब कुछ
लग रहा था बदला बदला
उसके पुराने पक्के मकान के स्थान पर
एक आलीशान महल था बन रहा
पूछने पर पता लगा कि
उसे बाबूसाहब ने खरीद ली
वह सोचती पर उसने तो
इसे किसी को इसे बेचा ही नहीं
किसी तरह साथ में लाये भूजे को खाकर
पेड़ के नीचे सोई वह जाकर
सुबह उठाने पर उसने आस पास
लोगो की चिख चिख सुनी
लोगो से पता चला कि
उनके दामादों ने लेकर उससे
पावर ऑफ़ अटर्नी
उसके खेतों और मकान को बेच दी

वह दहाड़ मार कर चिल्लाई
थर्रा गयी जिससे गाँव की गली
आज भी गाँव में फिरती है
वह बन कर पगली

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