गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

भरतुआ

पड़ोस में देख
एक विवाह का आयोजन
भरतुआ को लग रहा था कि
आज अवश्य ही पूरा होगा
उसका प्रयोजन

पिछले कई दिनों से
बापू की तबीयत ठीक नहीं थी
किसी तरह माँ बिना दाल और
सब्जी के बस अचार के साथ ही
रोटी दे पा रही थी
कभी कभी तो वह भी
मयस्सर नहीं हो पा रहा थी
पर आज एक अच्छे भोजन की
उम्मीद जग गयी थी

सबेरे ही भरतुआ जुट गया
अपने कपड़ो को साफ करने में
बिन बुलाये मेहमान की तर्ज पर
बीच बीच में
मेजबान के यहाँ भी जाकर
कुछ कम कर जाता
अपनी अनचाही उपस्थिति
दर्ज करा आता

तमाम पकवानों कि खुशबुओं से
गमक रहा था पूरा वातावरण
शाम को रोशनी से जगमगा उठा था
पूरा आयोजन स्थल
कट नहीं रहा था बस तो
भरतुआ से इंतजार का
एक एक पल

मेजबान के आहवाहन पर
जैसे ही लोग बाग
सुस्वादु व्यंजनों की और बढे
भरतुआ ने भी कदम
अन्दर रखा धीरे से
गृहस्वामी गरजा चिल्लाया
अरे देखो साला फालतू
कहाँ से घुस आया
पीट कर भगाओ स्साले को
इसको है किसने बुलाया
चलने लगे उस अबोध पर
थप्पड़ो की बौछारें
अंत में एक ने उसके हाथ को ऐठ
पकड़ कान कर दिया किनारे

अनवरत थप्पड़ों की मार से
उसका गाल सूज आया
अंत में अधमरा हो वह
बिना कुछ खाए पिए
घर लौट गया

माँ ने पूछा
भरतुआ तू कियन गई रहा
हम कब से तुम्हार रोटी बनाय
इंतजार कई रहा
बाबू आज रोटी के साथ
आलू झोल भी बनावा है
तोहे बबुआ बहुते भावा है
का बात है तुम्हारी तबीयत
आज ठीक रउए
आव आज तोहे
अपने हाथ से खियाबे

भरतुआ बड़े प्रेम से
अपनी माँ के हाथो से खा रहा था
एक एक कौर से उसका
एक एक रोम तृप्त हो रहा था
आज भरतुआ को रोटी और झोल
बेहद स्वादिष्ट लग रही थी
बेशक उसमे माँ की ममता
जो मिली हुए थी
वह सोच रहा था कि
रोज ही तो वह माँ के हाथ का
बना भोजन खा रहा था
मगर आज उसी खाने का स्वाद
आज बेहतर क्यों
नजर रहा था
शायद इस खाने में सम्मान और
स्वाभिमान जो मिला था

भरपेट खाकर भरतुआ
माँ की लोरी सुनते हुए
कब सो गया पता ही नहीं चला
सुबह होने पर देखा तो
सूरज सर पर चढ़ आया

सामने विवाह स्थल पर
बचे भोजन बाहर फेके जा रहे थे
कुछ बची हुई सब्जी और पूड़ी लेकर
मेजबान के लड़के
उसे देने उसके घर आये थे
भरतुआ चिल्लाया
मत लेना माँ इस खाने को
हमीं है क्या इन
खैरात को खपाने को
क्या हमीं है इनके इकठ्ठे
गए पापों को बटाने को
बच गया तो साले आये है
पुण्य कमाने को

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