मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

क्या हमें भी अपने वजूद खोजने होंगे।

कार्यालयी दिवस का
अंतिम पहर
शनै शनै हो रहा था सहर
भर दिन कि व्यस्तता से थका मांदा
आज भीड़ हो गयी थी
और दिनों से कुछ ज्यादा
जम्हाई लेते हुए मै जैसे ही
काउंटर बंद करने चला
एक कातर असहाय आवाज
एकाएक कानो में पड़ा

बचवा
तनी देर और रुक जा
बीस रुपया भाडा खर्च
कई बड़ी दूर से आवत हिजा

सामने दिखा
एक कृशकाय वृद्धा का आगमन
पता चला साथ मे
उसका पुत्र भी था मदन
मैंने कहा माताजी जल्दी आकर
अपने फॅमिली पेंशन का फारम भरो
अपने पेंशन का पैसा लेकर
जल्दी से चलते बनो
वर्ना मुझे खजाना बंद करने मै
आज फिर देर हो जाएगी
त्यौहार के मद्देजनर
आज फिर मार्केटिंग नहीं हो पायेगी
पत्नी कल कि तरह आज भी
नाराज हो जाएगी

सुनते ही पुत्र मदन ने फटाफट
उसका फार्म भरा
झट से प्राप्त रुपये को फुर्ती से गिन
अपने जेब मै धरा
उसकी माँ बोली बचवा
तनी हमूं के पइसवा ता दिखैते
कम से कम दवईया वदे हमका
पांच सौ रुपया दी देते
वर्ना घर गैला पर एको रुपया
तोहार दुल्हिन से पाइब
बचवा बतावा
हमार दवईया कैसे किनैब

माई तोहरा से
पैसा कैसे गिनल जाई
तोहरा से कबहू सभल पाई
चला घर देखल जाई

वृद्धा दबी जबान से बुदबुदाने लगी
वाह रे बचवा हम तोहके बचपन मै
पैसवे से गिनती सिख्वाले रहली
नाक बहाय के जब तू घूमत रहला
तो पोछे सलीके भी हमे सिखौले रहली
आज तू हमके सलीका सिखैबा
पाथर पर दूब जमइबा

ढेर बतियाव जिन
एहिजे हमरे इज्जत कबाड़
बनाव जिन
देखत है को त्यौहार सर पे आयी बा
बब्लुआ के मम्मी के धोती कपडा और
लइकन के कपड़ा कीने के बाकि बा
तोहरा दवैये के सूझल बा
पता नहीं अब जी के का कियल जाई
चला काढ़ा पानी पी के अभही कम चली
अगले महिना कुछ देखल जाई

सरबौला हमही के मुवात हौ
देखा एके बड़े बाबू तनी
बूझत नइखे कि हमारे मुवला पर कैसे
केकरा भरोसे एहिजे नोटिया गिनी
वृद्धा अश्रुपूरित नेत्रों से कभी हमें
कभी मदन को देख रही थी
हर महिनवे मै कुछ कुछ
बहाना बनाय कुल पैसवे हड़पने की
बात हमसे कह रही थी
दमे के प्रकोप के कारण
डाक्टर के बताये कुछ जाँच को
कई महीने से कराने को सोच रही थी
एक महिना और कैसे बीती
सोंच के काप रही थी
अपनी असमर्थता पर
आंसुओं को आँख के कोरो में
रोके रो रही थी
मरते समय मदन के बाबू द्वारा
मदन को दी जाने वाली सीख के बारे मै
ही वह शायद सोच रही थी

तभी मेरे पियन पुन्वासी की आवाज ने
मेरे ध्यान को भंग किया
साहब समय होई गवा कहकर
उसने काउंटर बंद कर दिया
मै निर्विकरवत मौन
पत्नी की नाराजगी से भयमुक्त
बंद खिड़की के पल्ले को
एकाग्र देख रहा था
चाह कर भी मदन को उसके इस
कुकृत्य को रोक पाने का
दंश झेल रहा था
सोंच रहा था की क्या
ऐसे दिन हमें भी देखने होगे
तेजी से विलुप्त हो रहे
मानवीय मूल्यों के बीच
क्या हमें भी अपने वजूद
खोजने होंगे

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