सोमवार, 11 जून 2012

शूल

शूल एक एक कर खेत के एक एक टुकड़े बिकते जा रहे थे खेतों की जगह कालोनी बसते जा रहे थे अभी पिछले साल तक रम्भू जिसे सीवान कहता था आज उदास नजरो से उसी में अपना बाग ढूड रहा था काल ही तो वह अपने बीच में फसे अंतिम खेत क़ी रजिस्ट्री कर आया था रास्ता उसका बन्द कर गाँव के विकास के नाम पर औने पौने दम पर भूमाफियाओं ने हड़का कर उस बची जमीन को उससे लिखवाया था हताश रम्भू अपने एकमात्र बचे कच्चे मकान के सामने बैठा अपने खेत खलिहान और सीवान को तेजी से कंक्रीट के जंगलो में बदलते देख रहा था इन आधुनिक जंगलो को ही विकास कहते है शायद यही सोच रहा था रह रह कर उसे अपने बचपन और जवानी के दिन याद आ रहे थे किस तरह गाँव के बच्चे दूर खेत खलिहान बाग बगीचों और सीवानो में इतराते थे कुछ समय के बाद गाँव का नामो निशान मिट गया उसकी जगह एक कंक्रीट का जंगल अशोकपुरम के नाम से बस गया रम्भू अब बूढ़ा हो चला था जमीन बेचने के एवज में मिले पैसो से बच्चों का समय दारू मुर्गे में जम कर कट रहा था गाँव निठल्लों और कामचोरों से भर गया था जीवन यापन का कोई और तरीका नहीं देख आज रम्भू क़ी पत्नी रामरती अपनी बहू के साथ कभी जिसकी मालकिन थी आज उसी कालोनी में घूम घूम कर कही बर्तन माज रही थी तो कही झाड़ू पोछा लगा रही थी किसी तरह उन घरो से मिले जूठे खानों और तुक्ष पैसों से अपने परिवार का भरण पोषण कर रही थी विकास क़ी इस विडंबना पर रामरती हताश सोचती कि कल तलक उसके यहाँ ताजे साग सब्जीयों के लिए जो लाइन लगाते थे आज उन्ही के झूठे बचे भोजन से उसके पेट भरते है थोड़ी सी देर हो जाने पर उनकी बीबियों के ताने शूल बन ह्रदय में चुभते थे

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