बुधवार, 20 जून 2012

दूसरे गाँधी

दूसरे गाँधी और शूल

तपती जेठ की
दोपहरी थी
अपने शीर्षतम  बिंदु  पर
गरम हवा चल रही थी
सूरज क़ी तीव्रतम तपिश से
बदन तप रहा था
तन का एक एक
रोम झुलसा  जा रहा था

परशान परिसर में
एक वृक्ष क़ी छाया पकड़
मै आराम फरमाने को
उत्सुक  और व्यग्र

देख रहा था
अपनी अतिरेक हरियाली से
पूरे शहर को
जो कभी देती थी पोषण
बनाये रखती  थी
पर्यावरण का संतुलन
परिसर क़ी उस हरियाली का 
हो रहा था तेजी से शोषण

देख रहा था
नित एक नए भवन क़ी
नीव पड़ते हुए
महामना क़ी बगिया को
कंक्रीट के जंगल में
बदलते हुए
सामने ही खेल के एक मैदान में
एक नूतन भवन सम्पूर्ण
साकारता क़ी और अग्रसर था
तेजी से वह काम
चल रहा था

बेदम कर देने वाली
इस जलती धूप में
दो तीन आधुनिक विशाल और
विकासशील भारत क़ी  स्यामवार्ण 
मगर सुगढ़ ललनाये 
गोद में इस आर्यावर्त के 
भविष्य  को छिपाए
नंगे पाव ईट ढो रही थी
शिक्षा के मंदिर में
बरबस शिक्षविदो के सर्व शिक्षा
अभियान के दावे क़ी
हसी उड़ा रही थी

साथ ही बड़े हसरत से
स्कूटी पर सवार
पूरे बदन को ढके
जींस पैंट के साथ
शानदार काला चश्मा चढ़ाये
इसी आधुनिक भारत क़ी ही
आधुनिक ललनाएं
एक मोहक खुशबू बिखेरते हुए
एक  एक कर
उनके पास से गुजरती जा रही थी

स्वयं को कोसते हुए
गर्मी से निढाल हो कभी
वह बैठ जाती
कभी ठीकेदारों के डर से
बिना सुस्तायें काम पर
पुनः लग जाती

संभवतः
उन्हें इंतजार किसी तरह
दिन ढले
गर्मी से रहत मिले
साथ ही पूरी मजदूरी क़ी चाह
पेट भरने के आस लिए वह भी
इसी आधुनिक आर्यावर्त क़ी ललनाये थी
मगर भारतीय वांग्मय और
सनातनी संस्कृति के दृष्टिकोण से
एक और दूसरे गाँधी को अपने उद्धार हेतु
अपने आंचल में छिपाए
शायद अपने पिछले जन्मो के
कर्मो का फल ही तो
भोग रही थी
डा रमेश कुमार निर्मेश





शूल
 एक एक कर खेत के
एक एक टुकड़े बिकते जा रहे थे
खेतों की जगह
कालोनी बसते जा रहे थे
अभी पिछले साल तक रम्भू
जिसे सीवान कहता था
आज उदास नजरो से उसी में अपना
बाग ढूड रहा था
काल ही तो वह अपने
बीच में फसे अंतिम खेत क़ी
रजिस्ट्री  कर आया था
रास्ता उसका बन्द कर
गाँव के विकास के नाम पर
औने पौने दम पर
भूमाफियाओं ने हड़का कर
उस बची जमीन को
उससे लिखवाया था

हताश रम्भू
अपने एकमात्र बचे
कच्चे मकान के सामने बैठा
अपने खेत खलिहान  और सीवान को
तेजी से कंक्रीट के जंगलो में
बदलते देख रहा था
इन आधुनिक जंगलो को ही
विकास कहते है
शायद यही सोच रहा था
रह रह कर उसे अपने 
बचपन और जवानी के
दिन याद आ रहे थे
किस तरह गाँव के  बच्चे
दूर खेत खलिहान बाग बगीचों  
और सीवानो में इतराते थे

कुछ समय के बाद
गाँव का नामो निशान मिट गया
उसकी जगह एक कंक्रीट का जंगल
अशोकपुरम के नाम से बस गया

रम्भू अब बूढ़ा हो चला था
जमीन बेचने के एवज में
मिले पैसो से बच्चों  का समय
दारू मुर्गे में जम कर कट रहा था
गाँव निठल्लों और कामचोरों से
भर गया था 

जीवन यापन का
कोई और तरीका नहीं देख
आज रम्भू क़ी पत्नी रामरती
अपनी बहू के साथ
कभी जिसकी मालकिन थी
आज उसी कालोनी में
घूम घूम कर
कही बर्तन माज रही थी तो
कही झाड़ू पोछा लगा रही थी
किसी तरह  उन घरो से मिले
जूठे खानों और  तुक्ष पैसों से
अपने परिवार का
भरण पोषण कर रही थी

विकास क़ी इस विडंबना  पर
रामरती हताश सोचती
कि कल तलक उसके यहाँ
ताजे साग सब्जीयों के लिए
जो लाइन लगाते थे
आज उन्ही के झूठे बचे भोजन से
उसके पेट भरते है
थोड़ी सी  देर हो जाने पर
उनकी बीबियों के ताने
शूल बन ह्रदय में चुभते थे

डा- रमेश कुमार निर्मेश
 

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