सदा की तरह
बसंत का आगमन
पुलकित
पूरी प्रकृति का
तन मन
अलसाई प्रात के साथ
दोपहर की उनींदी
अगडाई
हाथों को सर के ऊपर
लेजाकर लेती जम्हाई
बोझिल आँखे
नशीली अलसाई
हाँ सखी
यही तो है बसंत की
तरुणाई
सुदूर खेतों में
ईठलाती
पीली सारसों की बालियाँ
सरवर पर बलखाती
रवि रश्मियाँ
बेहोश करने को अमादा
मदमस्त बयार
फूलते अमलताश
बौरों से लदी
मदहोशित सुगंध बिखेरती
आम्रं मंजरियाँ
पीले गेंद और गुलाब की
कोमल पंखुड़ियाँ
निमंत्रण
बसंत के आने का
प्रकृति
दे रही थी
पर किसे यहाँ इन
भावों को पढ़ने की
फुरसत थी
पता नहीं क्यों
इतने के उपरांत भी
धरती में धुवाँ सा छाया है
गगन में कुहांसा है
मानव मन उदासा है
अवरोधित प्रतीत
प्रकृति की सृष्टिदायिता शक्ति
बाधित उद्दात्त भक्ति
बसंत का
सामूहिक अनुराग भी
कहीं खो गया है
उसके स्वागत का हमारा
उत्साह भी कही
सो गया है
अति बाजारवाद की
शापित संस्कृति से
आज का मानवजीवन
अभिशापित हो चला है
क्यों कि हमारा मन
दूसरों की चिंता छोड़
केवल स्वयं में समाहित
सा हो गया है
निर्मेष
बसंत का आगमन
पुलकित
पूरी प्रकृति का
तन मन
अलसाई प्रात के साथ
दोपहर की उनींदी
अगडाई
हाथों को सर के ऊपर
लेजाकर लेती जम्हाई
बोझिल आँखे
नशीली अलसाई
हाँ सखी
यही तो है बसंत की
तरुणाई
सुदूर खेतों में
ईठलाती
पीली सारसों की बालियाँ
सरवर पर बलखाती
रवि रश्मियाँ
बेहोश करने को अमादा
मदमस्त बयार
फूलते अमलताश
बौरों से लदी
मदहोशित सुगंध बिखेरती
आम्रं मंजरियाँ
पीले गेंद और गुलाब की
कोमल पंखुड़ियाँ
निमंत्रण
बसंत के आने का
प्रकृति
दे रही थी
पर किसे यहाँ इन
भावों को पढ़ने की
फुरसत थी
पता नहीं क्यों
इतने के उपरांत भी
धरती में धुवाँ सा छाया है
गगन में कुहांसा है
मानव मन उदासा है
अवरोधित प्रतीत
प्रकृति की सृष्टिदायिता शक्ति
बाधित उद्दात्त भक्ति
बसंत का
सामूहिक अनुराग भी
कहीं खो गया है
उसके स्वागत का हमारा
उत्साह भी कही
सो गया है
अति बाजारवाद की
शापित संस्कृति से
आज का मानवजीवन
अभिशापित हो चला है
क्यों कि हमारा मन
दूसरों की चिंता छोड़
केवल स्वयं में समाहित
सा हो गया है
निर्मेष
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