कार्यालयी कार्य से मैं
था लोखंवाला मुंबई के प्रवास पर
कार्य समाप्ति के उपरांत
स्थानीय एक मित्र ने बुलाया था
मुझे रात्रि सात बजे डिनर के लिए
अपने आवास पर
औपचारिक अभिवादन के साथ
चाय पीते हुए हो रही थी
बातें अतीत की सारी
पर कहीं भी दिख नहीं रही थी
डिनर की तैयारी
मैंने मेजबान मित्र से कहा
बॉस क्या खिला रहे हो आज डिनर में
मुझे निकलना है
आज की ही रात में
बोला चलते है काकोरी हाउस
जम के खायेंगे काकोरी कबाब
बड़ा उम्दा है उसका स्वाद
मैंने कहा काकोरी कबाब
यह क्या बला है
बोला क्या यार काकोरी हाउस का
काकोरी कबाब नहीं जानते हो
तुम यार हिंदुस्तान को
क्या पहचानते हो
अक्खा मुंबई कहलो या अक्खा हिंदुस्तान
या विदेशों तक में मशहूर है
इसका स्वाद ही तो हमारा गुरुर है
मैंने कहा यार मैं तो
काकोरी कांड के बारे में ही जानता हूँ
लखनऊ के पास एक गाँव है मानता हूँ
इससे अपने स्वतंत्रता का इतिहास पहचानता हूँ
प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी आर्यसमाजी
रामप्रसाद बिस्मिल अस्फाकुल्लाह आजाद
आदि के बलिदानों को बस
इससे जुड़ा जानता हूँ
समीप में खड़ा उनका बेटा
आश्चर्य से मुझे देख रहा था
मानो मैं किसी
स्वप्न की बातें कर रहा था
मित्र ने कहा की हाँ हाँ कही पढ़ा है
किसी काकोरी कांड के बारे में
ठीक से मालूम नहीं मेरा नोलेज भी कम है
इतिहास के गलियारे में
छोडो आओ चले
काकोरी कबाब का लज्जत चखे
वहां की रंगीनियत को
जी भर कर देखें
मैं शून्य में ताकता रहा
अतीत में बिस्मिल के साथ
साक्षात्कार करता रहा
बिस्मिल कह रहे थे
क्या यही है हमारी भावी पीढ़ी
जो निसंकोच आगे बढ रही
लगा कर हमारे बलिदानों की सीढ़ी
क्या इन्ही दिनों के लिए हमने
राष्ट्रप्रेम के माले में त्याग और
बलिदानों की मोती पिरोई थी
हर बार इसी धरा पर आने के लिए
फांसी के समय ईश्वर से
अनुशंषा की थी
अपने परिवार की चिंता न कर
पुरे देश को अपना परिवार
समझाने की जुर्रत की थी
सब्र मेरा भी टूट चला था
आंसुओं ने भी आखों का साथ
देना छोड़ दिया था
बिह्वल नतमस्तक हो मैं कह रहा था
मान्यवर आप घबराये नहीं
केवल इन्हें ही अपना पीढ़ी माने नहीं
हाँ बेशक है ये अफ़सोस की बात
पर मानिये है ये अपवाद
आज भी हमारे जैसे बहुत लोग है
जो आप जैसे के
बलिदानों की कदर कर रहें है
आज जिस आबोहवा में हम
खुल कर सास ले रहे है
निसंदेह इसे आप ही की
देन मान रहे है
तैयार होकर मित्र ने
एकाएक हमें हिलाया
उस स्वप्न से मुझे जगाया
मैंने कहा मित्र मैं तो शाकाहारी हूँ
काकोरी कबाब का मेरे लिए
क्या औचित्य
मैं तो खाऊंगा वही
जो खाता हूँ नित्य
मेरा आपसे मिलने का ही
था उपक्रम
जो हो गया पूरा
आप काकोरी कबाब का स्वाद ले
अभी मेरा कुछ काम है अधूरा
कह मैं अपने
गंतव्य को चला
मंगलवार, 29 मार्च 2011
मंगलवार, 22 मार्च 2011
दिवास्वप्न
आज धरमू
घर से सुबह सात बजे सुबह ही
काम के लिए निकल गया
तबियत थोड़ी नासाज थी
फिर भी मण्डी पहुच गया
कई दिनों की बीमारी ने उसे
कमजोर इस कदर कर दी थी
बची खुची जमा पूजी भी
दवा के नाम पर होम हो गयी थी
आज सुबह मुनिया के अनुनय ने
उसे व्यथित कर दिया था
न चाहते हुए भी काम पर जाने को
मजबूर कर दिया था
बापू हमके उ बंदूकवाला पिचकारी चाहिए
मोनू के पापा ओका कल्हे लइके दीन है
अउर अबकी हमके औ गुडिया वदे
फ़िराक वाला सुइट लई के दियो
ओमे हम बहुतै अच्छा लागब
उहे पहीन के तोहे अउर
माई के टीका कारब
सोचते सोचते पता ही नहीं चला की
वह मण्डी कब पहुच गया
जाकर मजदूरों की लाइन में
खड़ा हो गया
आज त्यौहार के कारण
वैसे भी मजदूरो की भीड़ बड़ी थी
पर मालिको की कमी भी
साफ दीख रही थी
कुछ आये भी तो उसे कमजोर देख
उसकी तरफ ताके तक नहीं
कुछ ने बातें तो की पर
वाजिब मजदूरी देने को तैयार नहीं
सोचते अउर बातें करते करते
दोपहर होने को आयी
बात कही बन नहीं पाई
अंत में एक ठीकेदार ने
उस पर तरस खाया
आधी मजदूरी पर तय कर
उसे अपनी साईट पर लाया
धरमू लग गया काम पर जी जान से
शाम की मजदूरी के प्लान में
सोच रहा था की आज की मजदूरी से
कुछ खाने के सामान के साथ
मुनिया की पिचकारी जरुर लायेंगे
उसेक चहरे की ख़ुशी को
तबियत से देखेंगे
अगर कल परसों भी काम लग गया
तब उसके अउर गुडिया के
फ्राक के लिए भी सोचेंगे
आगे भी काम पाने की लालसा में
बीमारी से उठे बदन से उसने
भरपूर मेहनत किया
ठीकेदार को खुश करने का
हरसंभव प्रयास किया
साथ में लाये रोटी और अचार को भी
बिसराय कर किनारे कर दिया
कमजोर बदन आखिर
ये कब तक सहता
धरमू साईट पर ही अचानक
बुखार की चपेट में पुनः आ गया
कापते पैरो ने उसका और चलना
मुश्किल कर दिया
एकाएक वह बांस से गिर गया
एक पटरे में फस उसका
पैर भी टूट गया
ठीकेदार चिल्लाया अरे साले
ये तुम्हे क्या हो गया
साले ने एक अटिया सेमेंट
ख़राब कर दिया
चल भाग साले यहाँ से
तुम लोगो पर दया करना बेकार है
थाम ये बीस रुपये
यही तुम्हारी अब तक की पगार है
धरमू बीस का नोट थामे
वही बैठ गया
कभी अपने टूटे पैर को
कभी उस नोट को देखता रहा
सोचता रहा की अब क्या होगा
इससे अब कौन सा
पूरा अरमान होगा
मुनिया और गुडिया के
सपनों का क्या होगा
उनके भाग्य में क्या दिवास्वप्न ही होगा
ईश्वर ने मुझे बचा ही क्यों लिया
मै मर क्यों नहीं गया
कम से कम इस संताप से
तो दूर रहता
परिवार के आंसूं देखने से
बच गया होता
पर वह शायद कैसे मरता
यदि मर जाता
तो दुःख पीड़ा और अवसाद के
नए प्रतिमान फिर
कौन बनता
घर से सुबह सात बजे सुबह ही
काम के लिए निकल गया
तबियत थोड़ी नासाज थी
फिर भी मण्डी पहुच गया
कई दिनों की बीमारी ने उसे
कमजोर इस कदर कर दी थी
बची खुची जमा पूजी भी
दवा के नाम पर होम हो गयी थी
आज सुबह मुनिया के अनुनय ने
उसे व्यथित कर दिया था
न चाहते हुए भी काम पर जाने को
मजबूर कर दिया था
बापू हमके उ बंदूकवाला पिचकारी चाहिए
मोनू के पापा ओका कल्हे लइके दीन है
अउर अबकी हमके औ गुडिया वदे
फ़िराक वाला सुइट लई के दियो
ओमे हम बहुतै अच्छा लागब
उहे पहीन के तोहे अउर
माई के टीका कारब
सोचते सोचते पता ही नहीं चला की
वह मण्डी कब पहुच गया
जाकर मजदूरों की लाइन में
खड़ा हो गया
आज त्यौहार के कारण
वैसे भी मजदूरो की भीड़ बड़ी थी
पर मालिको की कमी भी
साफ दीख रही थी
कुछ आये भी तो उसे कमजोर देख
उसकी तरफ ताके तक नहीं
कुछ ने बातें तो की पर
वाजिब मजदूरी देने को तैयार नहीं
सोचते अउर बातें करते करते
दोपहर होने को आयी
बात कही बन नहीं पाई
अंत में एक ठीकेदार ने
उस पर तरस खाया
आधी मजदूरी पर तय कर
उसे अपनी साईट पर लाया
धरमू लग गया काम पर जी जान से
शाम की मजदूरी के प्लान में
सोच रहा था की आज की मजदूरी से
कुछ खाने के सामान के साथ
मुनिया की पिचकारी जरुर लायेंगे
उसेक चहरे की ख़ुशी को
तबियत से देखेंगे
अगर कल परसों भी काम लग गया
तब उसके अउर गुडिया के
फ्राक के लिए भी सोचेंगे
आगे भी काम पाने की लालसा में
बीमारी से उठे बदन से उसने
भरपूर मेहनत किया
ठीकेदार को खुश करने का
हरसंभव प्रयास किया
साथ में लाये रोटी और अचार को भी
बिसराय कर किनारे कर दिया
कमजोर बदन आखिर
ये कब तक सहता
धरमू साईट पर ही अचानक
बुखार की चपेट में पुनः आ गया
कापते पैरो ने उसका और चलना
मुश्किल कर दिया
एकाएक वह बांस से गिर गया
एक पटरे में फस उसका
पैर भी टूट गया
ठीकेदार चिल्लाया अरे साले
ये तुम्हे क्या हो गया
साले ने एक अटिया सेमेंट
ख़राब कर दिया
चल भाग साले यहाँ से
तुम लोगो पर दया करना बेकार है
थाम ये बीस रुपये
यही तुम्हारी अब तक की पगार है
धरमू बीस का नोट थामे
वही बैठ गया
कभी अपने टूटे पैर को
कभी उस नोट को देखता रहा
सोचता रहा की अब क्या होगा
इससे अब कौन सा
पूरा अरमान होगा
मुनिया और गुडिया के
सपनों का क्या होगा
उनके भाग्य में क्या दिवास्वप्न ही होगा
ईश्वर ने मुझे बचा ही क्यों लिया
मै मर क्यों नहीं गया
कम से कम इस संताप से
तो दूर रहता
परिवार के आंसूं देखने से
बच गया होता
पर वह शायद कैसे मरता
यदि मर जाता
तो दुःख पीड़ा और अवसाद के
नए प्रतिमान फिर
कौन बनता
गुरुवार, 17 मार्च 2011
दूध का कर्ज
खामोश सुखिया
अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी थी
रक्त की एक बोतल उसे चढ़ चुकी थी
एक और अभी बाकी थी
सोच रही थी
किसने दिया होगा उसे रक्त
उसका मरद तो हो चुका
पहले ही अशक्त
बच्चे कभी झाकने नहीं आते
कभी आते तो करके हज़ार
बहाने वे लौट जाते
छोटू ने हिम्मत की थी
तभी उसके कानो में
बहू की आवाज पड़ी थी
अरे छोड़ा बूढ़ा के ऊ त
मरले दाखिल हई
अभी तोहे बहुत कम करे का है
चला हिला एहन से बहाना बनाय के
मरि जैहन त अभी
क्रिया करम भी है करे के
वह बोल तो नहीं पर
सुन तो थी ही सकती
ऑपरेशन के बाद अचेत
अपलक छत को निहारती
अतीत में चली गयी
डॉक्टर का चेहरा उसे
जाना पहचाना लग रहा था
दिमाग पर जोर देने पर उसे
कुछ धुधला सा याद आया
लक्षमण का चेहरा जेहन में भाया
जिसे जिसकी माँ
बचपन में ही छोड़
पड़ोसन संग इश्क लड़ाई
और भाग गयी थी
पड़ोसन के नाते जिसे उसने
अपना दूध पिला कर बड़ा की थी
फिर उसके बापू के तबादले ने
सबकुछ भुलवा दिया था
कुछ दिनों में ही सब अतीत का
हिस्सा बन गया था
हाँ हाँ ई त वही
लाछमनावा लागत है
पर इहा त सब एका
डॉक्टर एल के सिंह कहत है
छोड़ा कुछो होय हमै का करे का है
दिमाग पर ज्यादा जोर
डाले का हमै का पड़ा है
सोचते सोचते न जाने वह
कब सो गयी
भोर में जगी तो देखा
सुबह हो गयी
डॉक्टर बाबु राउंड पर आये थे
उसके सर पर हाथ रख सहला रहे थे
आज उसे तबियत कल से
बहुत ठीक लग रही थी
सुखिया अम्मा कैसी हो सुन
डॉक्टर के मुख से अपना नाम
वह दंग रह गयी थी
बहुतै दूध पिलवा है हमका
अब हमरी बारी आवा है
एक बोतल खून हम दै चुके
एक अउर देना बाकी है
हम तोहरा बदे आपन
सब खून दै सकत है
तबो माई तोहरे दूध का करज
हम कभों न उतार सकित है
सुन आपन माटी क आवाज
सुखिया सकते में आ गयी
अरे तू त लाछामन्वा ही हवे
कहते सुखिया गदगद हो गयी
पर यहाँ तो सब तोहके
डॉक्टर एल के सिंह कहत है
पर तू त लाछामन्वा ही है
बाबा इ कैसी विपत है
सुखिया की देख निश्छल सोच और हंसी
डॉक्टर बाबू ने सुखिया की गोद में
अपना सर रख दिया
सुखिया ने भी तुरंत अपने आंचल से
उनका मुख ढक दिया
आंचल के दूसरे कोने से मुंह ढाप
सुखिया रो पड़ी थी
दूध के कर्ज को सुखिया
आज बडे मार्मिक ढंग से
समझ रही थी
जिनसे थी अपेक्षा
उन्होंने तो मुंह फेर लिया था
पर आज दूघ के रिश्ते ने
अपने को रक्त के रिश्ते से
बेहतर साबित कर दिया था
पूरे वार्ड में पसरा सन्नाटा
बन गवाह इस बात की
सच्चाई बड़ी सिद्दत से
बयां कर रहा था
अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी थी
रक्त की एक बोतल उसे चढ़ चुकी थी
एक और अभी बाकी थी
सोच रही थी
किसने दिया होगा उसे रक्त
उसका मरद तो हो चुका
पहले ही अशक्त
बच्चे कभी झाकने नहीं आते
कभी आते तो करके हज़ार
बहाने वे लौट जाते
छोटू ने हिम्मत की थी
तभी उसके कानो में
बहू की आवाज पड़ी थी
अरे छोड़ा बूढ़ा के ऊ त
मरले दाखिल हई
अभी तोहे बहुत कम करे का है
चला हिला एहन से बहाना बनाय के
मरि जैहन त अभी
क्रिया करम भी है करे के
वह बोल तो नहीं पर
सुन तो थी ही सकती
ऑपरेशन के बाद अचेत
अपलक छत को निहारती
अतीत में चली गयी
डॉक्टर का चेहरा उसे
जाना पहचाना लग रहा था
दिमाग पर जोर देने पर उसे
कुछ धुधला सा याद आया
लक्षमण का चेहरा जेहन में भाया
जिसे जिसकी माँ
बचपन में ही छोड़
पड़ोसन संग इश्क लड़ाई
और भाग गयी थी
पड़ोसन के नाते जिसे उसने
अपना दूध पिला कर बड़ा की थी
फिर उसके बापू के तबादले ने
सबकुछ भुलवा दिया था
कुछ दिनों में ही सब अतीत का
हिस्सा बन गया था
हाँ हाँ ई त वही
लाछमनावा लागत है
पर इहा त सब एका
डॉक्टर एल के सिंह कहत है
छोड़ा कुछो होय हमै का करे का है
दिमाग पर ज्यादा जोर
डाले का हमै का पड़ा है
सोचते सोचते न जाने वह
कब सो गयी
भोर में जगी तो देखा
सुबह हो गयी
डॉक्टर बाबु राउंड पर आये थे
उसके सर पर हाथ रख सहला रहे थे
आज उसे तबियत कल से
बहुत ठीक लग रही थी
सुखिया अम्मा कैसी हो सुन
डॉक्टर के मुख से अपना नाम
वह दंग रह गयी थी
बहुतै दूध पिलवा है हमका
अब हमरी बारी आवा है
एक बोतल खून हम दै चुके
एक अउर देना बाकी है
हम तोहरा बदे आपन
सब खून दै सकत है
तबो माई तोहरे दूध का करज
हम कभों न उतार सकित है
सुन आपन माटी क आवाज
सुखिया सकते में आ गयी
अरे तू त लाछामन्वा ही हवे
कहते सुखिया गदगद हो गयी
पर यहाँ तो सब तोहके
डॉक्टर एल के सिंह कहत है
पर तू त लाछामन्वा ही है
बाबा इ कैसी विपत है
सुखिया की देख निश्छल सोच और हंसी
डॉक्टर बाबू ने सुखिया की गोद में
अपना सर रख दिया
सुखिया ने भी तुरंत अपने आंचल से
उनका मुख ढक दिया
आंचल के दूसरे कोने से मुंह ढाप
सुखिया रो पड़ी थी
दूध के कर्ज को सुखिया
आज बडे मार्मिक ढंग से
समझ रही थी
जिनसे थी अपेक्षा
उन्होंने तो मुंह फेर लिया था
पर आज दूघ के रिश्ते ने
अपने को रक्त के रिश्ते से
बेहतर साबित कर दिया था
पूरे वार्ड में पसरा सन्नाटा
बन गवाह इस बात की
सच्चाई बड़ी सिद्दत से
बयां कर रहा था
गुरुवार, 10 मार्च 2011
अभिशापित जीवन और अरुणा
मृत्यु तो एक शाश्वत सत्य
के रूप में है ही विरासित
पर अब उसका जीवन भी
बन चुका है अभिशापित
दे रहा है उसे कौन सा सुख
अरुणा का अर्थहीन जीवन
ऐसे जीवन से है अच्छा नहीं
क्या करना मृत्यु का वरण
हम एक बार के मृत्यु की
कल्पना से सिहर उठते है
हज़ार बार वह नित्य मरती है
हम भावनाओ में बहा करते है
हर चीज कानून के दायरे में
तय हुआ नहीं करती है
सही और गलत बातें हमारे
विवेक पर निर्भर करती है
निरंतर पिछले सैतीस वर्षों से
जो हमारी भावनाओ को ढो रही
डोलने बोलने में सर्वथा अक्षम
एक्षम्रित्यु जाहिर करने से रही
सार्थक जीवन भी रागिनियो का
एक सार्थक नाम होता है
तमाम उतर चढाओं के साथ
रस प्रसाद माधुर्य से भरा होता है
उसकी निस्वार्थ सेवा कर
हम उसे कौन सा सुख दे रहे
बस भावनाओ में बहकर
उसे दुःख ही दुःख दे रहे है
हमारी सेवा अगर किसी के लिए
बनजाये अंतहीन दुःख का कारण
जीवन के औचित्यहीन दंश से कही
अच्छा है उसका औचित्यपूर्ण मारण
अगर तीस बत्तीस वर्ष पूर्व ही
उसे मिल जाती नारकीय जीवन से मुक्ति
उपरांत पुनर्जीवन के वह होती
आज एक नूतन युवा नारी शक्ति
करती अठखेलियाँ पावन प्रकृति से
बागों और बसंत से होती आनंदित
उसके यौवन की खुशुबुओं से
पावन धरा भी होती दिगंदित
जीवन के एक एक पल का करती
कितनी सिद्दत से रसपान
दे पाए नहीं जो हम उसे करके
अपने हज़ार प्रयास के उपरांत
सम्मान करता हूँ मै दिल से
अरुणा के उन सह्कर्मिओं का
रातदिन एक कर दिया जिन्होंने
लेकर निस्वार्थ सेवाव्रत का
पर क्या कही दिखाती नहीं
इसमे भी स्वार्थ की आहट
भावनाओं के पीछे से आ रही
निरंतर नाम की सरसराहट
कि देखे और सोचे लोग मेरे
इस सेवाव्रत के नूतन आयाम को
पर सार्थक सेवाव्रत ही देती है
एक सुखद अंजाम को
इस सेवा व्रत ने तो लटका दिया है
अधर में किसी के जीवन को
जबकि प्रतीक्षा एक सुखद मौत की
है त्रिशंकु बनी अरुणा रामचंद्र को
वस्तुतः है नहीं यह किसी को जीवन देना
है क्रमशः उसे मौत के करीब ही ले जाना
तो क्यों न उसे मर्सी किलिंग दे दी जाय
अच्छा नहीं है किसी को तिल तिल कर मारना
इस ब्लॉग के माध्यम से सम्मान करता हूँ
जिंदादिल याचिका पिकी वीरानी का
समाप्त हो जिंदगी और मौत का यह खेल
पक्षधर हूँ उनके जज्बे और कद्रदानी का
के रूप में है ही विरासित
पर अब उसका जीवन भी
बन चुका है अभिशापित
दे रहा है उसे कौन सा सुख
अरुणा का अर्थहीन जीवन
ऐसे जीवन से है अच्छा नहीं
क्या करना मृत्यु का वरण
हम एक बार के मृत्यु की
कल्पना से सिहर उठते है
हज़ार बार वह नित्य मरती है
हम भावनाओ में बहा करते है
हर चीज कानून के दायरे में
तय हुआ नहीं करती है
सही और गलत बातें हमारे
विवेक पर निर्भर करती है
निरंतर पिछले सैतीस वर्षों से
जो हमारी भावनाओ को ढो रही
डोलने बोलने में सर्वथा अक्षम
एक्षम्रित्यु जाहिर करने से रही
सार्थक जीवन भी रागिनियो का
एक सार्थक नाम होता है
तमाम उतर चढाओं के साथ
रस प्रसाद माधुर्य से भरा होता है
उसकी निस्वार्थ सेवा कर
हम उसे कौन सा सुख दे रहे
बस भावनाओ में बहकर
उसे दुःख ही दुःख दे रहे है
हमारी सेवा अगर किसी के लिए
बनजाये अंतहीन दुःख का कारण
जीवन के औचित्यहीन दंश से कही
अच्छा है उसका औचित्यपूर्ण मारण
अगर तीस बत्तीस वर्ष पूर्व ही
उसे मिल जाती नारकीय जीवन से मुक्ति
उपरांत पुनर्जीवन के वह होती
आज एक नूतन युवा नारी शक्ति
करती अठखेलियाँ पावन प्रकृति से
बागों और बसंत से होती आनंदित
उसके यौवन की खुशुबुओं से
पावन धरा भी होती दिगंदित
जीवन के एक एक पल का करती
कितनी सिद्दत से रसपान
दे पाए नहीं जो हम उसे करके
अपने हज़ार प्रयास के उपरांत
सम्मान करता हूँ मै दिल से
अरुणा के उन सह्कर्मिओं का
रातदिन एक कर दिया जिन्होंने
लेकर निस्वार्थ सेवाव्रत का
पर क्या कही दिखाती नहीं
इसमे भी स्वार्थ की आहट
भावनाओं के पीछे से आ रही
निरंतर नाम की सरसराहट
कि देखे और सोचे लोग मेरे
इस सेवाव्रत के नूतन आयाम को
पर सार्थक सेवाव्रत ही देती है
एक सुखद अंजाम को
इस सेवा व्रत ने तो लटका दिया है
अधर में किसी के जीवन को
जबकि प्रतीक्षा एक सुखद मौत की
है त्रिशंकु बनी अरुणा रामचंद्र को
वस्तुतः है नहीं यह किसी को जीवन देना
है क्रमशः उसे मौत के करीब ही ले जाना
तो क्यों न उसे मर्सी किलिंग दे दी जाय
अच्छा नहीं है किसी को तिल तिल कर मारना
इस ब्लॉग के माध्यम से सम्मान करता हूँ
जिंदादिल याचिका पिकी वीरानी का
समाप्त हो जिंदगी और मौत का यह खेल
पक्षधर हूँ उनके जज्बे और कद्रदानी का
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