गुरुवार, 10 मार्च 2011

अभिशापित जीवन और अरुणा

मृत्यु तो एक शाश्वत सत्य
के रूप में है ही विरासित
पर अब उसका जीवन भी
बन चुका है अभिशापित

दे रहा है उसे कौन सा सुख
अरुणा का अर्थहीन जीवन
ऐसे जीवन से है अच्छा नहीं
क्या करना मृत्यु का वरण

हम एक बार के मृत्यु की
कल्पना से सिहर उठते है
हज़ार बार वह नित्य मरती है
हम भावनाओ में बहा करते है

हर चीज कानून के दायरे में
तय हुआ नहीं करती है
सही और गलत बातें हमारे
विवेक पर निर्भर करती है

निरंतर पिछले सैतीस वर्षों से
जो हमारी भावनाओ को ढो रही
डोलने बोलने में सर्वथा अक्षम
एक्षम्रित्यु जाहिर करने से रही

सार्थक जीवन भी रागिनियो का
एक सार्थक नाम होता है
तमाम उतर चढाओं के साथ
रस प्रसाद माधुर्य से भरा होता है

उसकी निस्वार्थ सेवा कर
हम उसे कौन सा सुख दे रहे
बस भावनाओ में बहकर
उसे दुःख ही दुःख दे रहे है

हमारी सेवा अगर किसी के लिए
बनजाये अंतहीन दुःख का कारण
जीवन के औचित्यहीन दंश से कही
अच्छा है उसका औचित्यपूर्ण मारण

अगर तीस बत्तीस वर्ष पूर्व ही
उसे मिल जाती नारकीय जीवन से मुक्ति
उपरांत पुनर्जीवन के वह होती
आज एक नूतन युवा नारी शक्ति

करती अठखेलियाँ पावन प्रकृति से
बागों और बसंत से होती आनंदित
उसके यौवन की खुशुबुओं से
पावन धरा भी होती दिगंदित

जीवन के एक एक पल का करती
कितनी सिद्दत से रसपान
दे पाए नहीं जो हम उसे करके
अपने हज़ार प्रयास के उपरांत

सम्मान करता हूँ मै दिल से
अरुणा के उन सह्कर्मिओं का
रातदिन एक कर दिया जिन्होंने
लेकर निस्वार्थ सेवाव्रत का

पर क्या कही दिखाती नहीं
इसमे भी स्वार्थ की आहट
भावनाओं के पीछे से आ रही
निरंतर नाम की सरसराहट

कि देखे और सोचे लोग मेरे
इस सेवाव्रत के नूतन आयाम को
पर सार्थक सेवाव्रत ही देती है
एक सुखद अंजाम को

इस सेवा व्रत ने तो लटका दिया है
अधर में किसी के जीवन को
जबकि प्रतीक्षा एक सुखद मौत की
है त्रिशंकु बनी अरुणा रामचंद्र को

वस्तुतः है नहीं यह किसी को जीवन देना
है क्रमशः उसे मौत के करीब ही ले जाना
तो क्यों न उसे मर्सी किलिंग दे दी जाय
अच्छा नहीं है किसी को तिल तिल कर मारना

इस ब्लॉग के माध्यम से सम्मान करता हूँ
जिंदादिल याचिका पिकी वीरानी का
समाप्त हो जिंदगी और मौत का यह खेल
पक्षधर हूँ उनके जज्बे और कद्रदानी का

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