शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

प्रकृति का अनुपम अनुराग





मध्याह्न
भोजनावकास का समय था
मित्रो के साथ पास के कैंटीन में
मै विराजित था
छोले के साथ समोसे कट रहे थे
साथ ही वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य पर
जम कर बहस हो रहे थे
जहाँ एक और अन्ना के पक्ष में
कसीदे पढ़े जा रहे थे
वही बाबा कि असफलता पर
एक्सपर्ट कमेंट्स कसे जा रहे थे

मै चाय कि चुसकिया लेता हुआ
खामोश बहस से दूर
सामने के नयनाभिराम दृश्य पर
ध्यानस्थ हो गया था
करीब में ही नल के पास पड़े
जुठनो पर कौओं का एक झुण्ड रमा था
उनके पास ही चिड़ियों का एक
समूह भी जमा था
जो शायद अपनी पारी का
इंतजार कर रही थी
पर कौवों कि भीड़ थी कि
हटने का नाम ही नहीं ले रही थी
बड़े चाव वे डटे थे
मस्त दावत उड़ा रहे थे
उसी बीच में एक छोटा कौवा
जिसका एक पैर काम नहीं कर रहा था
संभवतः वह बीमार भी था
एक ही पैर का सहारे उस जूठन में से
अपने लिए कुछ पाने का कई बार
प्रयास करता रहा
पर हर बार अपने झुण्ड के असहयोग से
असफल रहा
शायद निराश हो चला था

अपनी क्षुदा को तृप्त कर
एक एक कर जब वो जाने लगे
चिड़ियों के समूह तब
क्रमशः करीब आने लगे
बचे जूठनो पर अपना अधिकार
ज़माने कि चेष्टा करने लगे
तभी वह कौवा घिसटा हुआ
कुछ पाने कि उम्मीद में
पुनः आगे आ गया था
पर तमाम प्रयास के उपरांत भी
स्वतः से कुछ ग्रहण नहीं कर पा रहा था
हर बार प्रयास करने के उपरांत भी
वह अपने को सम्भाल नहीं पा रहा था
रह रह कर गिर जा रहा था
चिड़ियों के झुण्ड में से एक को शायद
आ गयी उस पर दया
उसने अपनी चोंच में
समोसे का एक टुकड़ा लिया
उसे उस कौवे के मुंह में पकडाया
एक बरगी तो कौवा घबराया
पर किसी तरह उसने उस टुकड़े को
अपने मुंह में सरकाया
इस प्रक्रिया को कई बार दोहराया गया

उस घायल कौवे कि क्षुदा
क्रमशः तृप्त हो रही थी
इसी बीच जूठन भी समाप्त हो गयी थी
बेचारी वह चिड़िया स्वयं शायद
भूखी ही रह गयी थी
मानवीय प्रेम से परे
प्रकृति के इस अनुपम अनुराग को
देख मेरी ऑंखें श्रद्धा से भर गयी थी
मौन में इन बेजुबानो की भाषा को
समझाने का प्रयास कर रहा था
अपने भोजनावकाश का सार्थक
उपयोग कर रहा था

अपने को जहाँ अभी तक
इस श्रृष्टि का एक सबसे
अनुपम सभ्य और सुसंस्कृत
कृति समझ रहा था
वही अब अपनी भूल पर
तरस खा रहा था
निरपेक्ष भाव से मूर्तिवत
मै उस दृश्य से शिक्षा
ले रहा था

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें