गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

हे नूतन वर्ष तू ठहर जरा

परम आदरणीय सुधि पाठक वन्धुओं पिछले काफी दिनों से आप मुझे युवामन पर देख रहे है और सराह रहे है जिससे मुझे सदा कुछ नया करने की प्रेरणा मिलती रहती है पहले तो मै आपका आभारी हूँ और नूतन वर्ष पूर्व संध्या पर हृदय से धन्यवाद् देना चाहता हूँ आप सबको नए वर्ष की ढेर सारी शुभ कामनाओ के साथ मेरी ये रचना उस आतंकी घटना पर आधारित है जिसने पिछलो दिनों वाराणसी को न केवल हिला दिया बल्कि दहला दिया था और ऐसे परिवेश में स्थानीय अवाम में एक नया जोश व जूनून भरने का एक छोटा सा प्रयास है मेरा आशा है सदा की भाति आपको पसंद आयेगा
पुनः धन्यवाद् के साथ सादर

निर्मेश

हे नूतन वर्ष तू ठहर जरा
क्यों ठिठक रहे है पावँ तिहारे
क्यों उदास तुम आज लग रहे
निर्भय आओ तुम पावँ पसारे

भरी आज क्यों आंख तिहारी
तन तेरा निस्तेज है क्यों
मस्तक पर चिंता की लहरे
मुख मंडल खामोश है क्यों

बेशक असुरों की बढ़ी बाढ़ है
आसुरी प्रवृतियाँ है हमें डराती
निसंदेह सहमती आज धरा भी
पर तुम मानवता की हो थाती

ये असुर भटकते अधियारों में
हो चुके कर्म मर्यादाहीन
लक्ष्य दीखता इन असुरों का
बने धरा सौन्दर्यविहींन

देखे कितने विनाश है तुमने
कितनो युद्धहों के तुम गवाह हो
साक्षी रहे प्रलय के तुम भी
नई श्रृष्टि के तुम प्रवाह हो

पनप रही दैवी प्रवृतियाँ भी
लिए हाथ में इनकी गर्दन
होगी अतीत की पुनरावृत्ती
होगा इनका मान मर्दन

सदा रही विनाश से दूर धरा
आजीवन इसने वरदान दिया
हर तन का अवसाद छीन
हर चेहरे पर मुस्कान दिया

ये स्वयं रही अनभिज्ञ मधु से
जीवनभर विषपान किया
इस माँ ने झेले लाखो कष्ट
अविरल श्रृष्टि को पनाह दिया

शश्य श्यामला आर्य भूमि पर
होगा तेरा शत शत वंदन
नई श्रृष्टि की चादर तान
प्रकृति करे तेरा अभिनन्दन

होगा पुनः अमृत का वर्षण
हे नूतन वर्ष तेरे नेतृत्व में
मुखरित होगी पावन प्रकृति
हम अर्याजानो के कृतित्व से

निर्भय आओ तुम सौगात लिए
होती नहीं अब और प्रतीक्षा
करो दानवों का तुम नाश
पूरित मानव की हर इक्क्षा

पथ में बिछा दूब चांदनी
कर युवाशक्ति का आह्वाहन
दूर क्षितिज तक बूंद ओंस की
नयनाभिराम दर्शन पावन

ले अतीत से नूतन सीख
कर पावन भविष्य का निर्माण
नहीं चाहिए और किसी
अपनी जीवन्तता का प्रमाण

अभिनन्दन शत शत वंदन
हे पावन प्रकृति हे वसुंधरा
लिए अंक में चारो पुरुषार्थ
है नमन तुम्हे पावन धरा

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

वेदना से नवोन्मेष की शिखर यात्रा

सहसा ठिठक गए पावँ
देख सामने एक नाव
एक वृद्ध को को तमाम बच्चो के साथ
करते देख अटखेलिया
करते गलबहिया

अरे ये तो वही है
जिसे मेंटल अस्पताल में
देखा था कुछ महीने पहले
चीखते जोर जोर से
पूछने पर नर्से ने बताया
हाल कुछ इस तरह सुनाया

इसके दोनों बेटें निकट भूत में
सीमा पर हो गए शहीद
नाम इसका है अब्दुल वाहिद
पत्नी पहले ही चल बसी थी
यही इनकी आखिरी उम्मीद बची थी
इसी सदमे ने कर दिया इसे पागल
सुन मन हो गया बेकल
दिल दहल उठा था
मैं मौन निस्तब्ध बस
उसे ही देखे जा रहा था

अंत में संवेदना व्यक्त करते
साथ लाये फलो को
उसे ही अर्पित करते
अपने मरीज को देख
मैं बाहर हो गया था
समय के साथ उस घटना को
भी भूल गया था

पर आज वह घाव
पूजने के बजाय हरी हो गयी
आंखे पुनः भर गयी
मुझे लगा की शायद
वह पूरा पगला गया था
क्योकि जिसे देखा था
भीषण दुःख और अवसाद से ग्रसित
वह तो खुल कर आज हस रहा था

जिज्ञासवास मैं उसके करीब आया
उसका देख व्यवहार आंख भर आया
मैंने कहा चाचा आप कैसे है
बोला पहले से बेहतर है
बच्चो के जाने के बाद
जीवन में भर गया था अवसाद
एकबारगी लगा था
जीवन हो गया समाप्त
पर अंतर्मन में जो शक्ति थी व्याप्त
उससे मुझे मिले निर्देश
जीवन में करने है अभी और कुछ शेष

पुनः एक दृढ संकल्प के साथ
तैयार हो गया जीवन से करने दो दो हाथ
बेशक मैंने अपने दो लाल है खोये
पर हमारे पारम्परिक मूल्य
वसुधैव कुटुम्बकम ने
ये अनेक लाल है मुझको दिए
बेटा अब इन अनाथ बच्चो की
देखभाल करता हूँ
अपने पेंसन के सभी पैसे
इन्ही पर खर्च करता हूँ

देश पर मर मिटने हेतु
इन्हें ही प्रेरित करता हूँ
ताकि इन्हें रोजी रोटी के साथ साथ
देश की सेवा का अवसर भी मिल सके
बेटा यह इस देश का है पराक्रम
जहाँ लाइन लगाकर
फौज में भर्ती होकर
जान देना ही है इन कर्णधारों का
प्रारब्ध और उपक्रम
देश की वर्तमान स्थिति से तो
आप हो ही परिचित
इन नेताओं और नौकरशाहों से
हो नहीं आप अपरिचित
देश कैसे रहेगा सुरक्षित सत्रुओं से
इन्हें तो फुर्सत है नहीं
अपनी जेबे भरने से
मची है चारों ओर जो मारा मारी
ऐसे परिवेश में मेरा
छोटा सा प्रयास रहेगा जारी
मरना तो सभी को है ही एक दिन
कम से कम ये देश को बचायेगे
इस आर्यावर्त के इतिहास को दोहरायेगे

अपलक खामोश मैं
उस वृद्ध को देख रहा था
उसके जीवन का फलसफा
समझने का प्रयास कर रहा था
देख रहा था उसके जीवन की
कामना और लालसा
वेदना से नवोन्मेष की शिखर यात्रा
उसके जीवन की जिजिविषिका को
अपने से कम्पयेर कर रहा था
उसके सामने अपने को
बहुत ही तुक्ष
महसूस कर रहा था

रविवार, 19 दिसंबर 2010

स्तब्ध मैं विचलित .....

कुम्भस्नान हेतु
सपरिवार मैं इलाहाबाद जा रहा था
रिजेर्वेशन कम्पार्टमेंट में भी
भीड़ बड़ा जा रहा था

बहुत सारे स्नानार्थी
और यात्री पुण्य कमाने
संगम में जा रहे थे
डुबकी लगाने

डिब्बे में सदा की भांति
चना मूंगफली वाल़े व
भिखारी आ जा रहे थे
अपनी अपनी तरह से
अपनी आजीविका कमा रहे थे

उसी भीड़ में हमें भीख
माँगते हुए दो बच्चियां मिली
एक की आंख थी बंद
शायद थी वो अंधी दुसरे की थी खुली

जीर्ण शीर्ण वस्त्रों में
आवर्णित तन
व्यथित मन
बड़े हे करुण रस में
कर रही थी वो विलाप
दग्ध हो गया मन
देख उनका प्रलाप

विदेशी सैलानियों ने
उनके फोटो लिए
चाँद सिक्के के साथ
खाने को भी कुछ दिए
सभी की तरह मैंने भी
कुछ रुपये दिए उनको
देख उनकी करुण गाथा
समझा रहा था मैं
अपने व्यथित मन को

हाय ईश्वर ने
ये क्या किया
असमय ही इनके माँ बापू को
इनसे क्यों छीन लिया

यही सोचते सोचते
स्टेशन आया
नीचे उतरा मैं लेकर सारे सामान
चारो ओर बिखरी भीड़ देख
मन हो गया परेशान
एक किनारे खड़ा मैं
आगे के लिए सोच रहा था
तभी उन बच्चियों को
हंस हंस कर बातें करते
एक कोने मैं देख रहा था

उनके आँखों की
देख चमक
आवाज की खनक
माथा गया ठनक
वो कह रही थी
कितना मजा आया
ऑंखें बंद करके
खुली आँखों वालों को
कितनी खूबसूरती से
बेवकूफ बनाया

स्तब्ध
हो विचलित
कभी मैं आसमान की ओर
कभी उनको देखता रहा
उनके अतीत और भविष्य के
आकान्छाओं के बीच
मैं मूर्तिवत झूलता रहा

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

नया जीवन

ख़ुदकुशी की असफल
कोशिश के बाद अस्पताल के
विस्तर पर मै पड़ा था
बगल में ही एक और मरीज
गंभीर रोग से पीड़ित था
असाध्य रोग से ग्रस्त
पर देखा उसके अन्दर
जीने की प्रबल लालसा
एक मै था की स्वस्थ होकर भी
स्वयं को काल के गाल में
भेजने को उद्यत था

एक खिडकी थी
ठीक उसके पीछे
रोज उसके पास बैठता था
वो आंखे मीचे
मै अक्सर कई बार उससे
बिस्तर बदलने को कहता
करके नए बहाने
वो हर बार टाल जाता

मै उदास उससे ही
बाहर के हाल चाल पूछता
वो हर बार मुझे
कुछ सुन्दर बताता
मेरे अन्दर जीने की
एक नई इच्छा भरता

प्रकृति के तमाम
सौंदर्य का दे हवाला
मेरी इक्षाशक्ति बढाकर उसने
मेरी मृत्यु को लगभग टाला
मुझे ठीक होते देख उसकी
खुशियों का नहीं था पारावार
जबकि उसकी तबियत
बिगड़ रही थी लगातार

एक दिन सुबह उठकर मैंने
आवाज सुनी नहीं उसकी
मेरे नीचे से जमीन सरकी
जिग्यासवास धीरे से उठकर
गया जब उसके बिस्तर
पर उसे मौन पाया
उसके खिड़की के पीछे
बस एक सख्त दीवाल पाया

हतप्रभ मैं कभी उसे
कभी उस दीवाल को देखता
सोचता
बेशक वो जीवन की जंग
भले ही हार गया
पर जाते जाते
अनजाने में ही सही
मुझे नया जीवन
वो दे गया

शनिवार, 4 दिसंबर 2010

पापा का प्यार

अपनी छोटी सी दुनिया में
खो गए थे हम
मन में लिए उच्च शिछा के सपने
दो बहन और एक भाई के साथ
बड़े हो रहे थे हम
पापा के सिमित आय में ही
मजे से चल रहा था गुजरा
एक दुसरे की तकलीफे
थी नहीं हमें गवारा
बड़ी होने के कारण मैं
माँ बापू की थी दुलारी
हर छोटे बड़े घरेलु निर्णयों में
मेरा होता था पलड़ा भारी
पापा चाहते थे
मुझे जान से भी ज्यादा
कितनी बार कहा था
तुमसे दूर होना हमें
तनिक भी नहीं भाता
अचानक पापा के हृदयाघात ने
हमें झकझोर दिया
मेरे सारे सपने को
तक़रीबन ही तोड़ दिया
हृदयाघात के उपरांत
स्वास्थ्यलाभ कर रहे पापा को
मम्मी समझा रही थी
मेरे विवाह की चिंता ही
उन्हें खा रही थी
मैंने अपने सारे सपने को
पापा की खातिर दे दी तिलांजलि
विवाह के लिए भर हामी
शायद भर दी थी उनकी अंजलि
विवाह के उपरांत भरे मन से
दे दी गयी मुझे विदाई
पापा मम्मी के साथ
भाई बहनों की आंखे भी
रो रो कर सूज आयी
देख सबका प्रेम इतना सारा
मेरा भी कलेजा मुह को आया
बरबस आसुओं के सैलाब के साथ
अपने को अनजान लोगो के बीच
ससुराल में पाया
रास्ते भर सोचती रही की
अब पापा का क्या होगा
सोच कर मन काप गया
की मेरे बिना उनका जीवन
कितना सूना होगा
समयचक्र के खेल ने मुझे
ससुराल में व्यस्त कर दिया था
बेशक मोबाइल ने दूरियों को
कम कर दिया था
फिर भी रह रह कर कलेजे में
हूक उठती रही
पापा से मिलने की इक्छा
बलवती होती रही
सोचती पता नहीं पापा कैसे होगे
कैसे उनके दिन और रात कटते होगे
चाय और डिनर पर पापा अब
किसका इंतजार करते होगे
पारवारिक फैसले पर अब
किसकी मुहर लगती होगी
और किससे अपने दिल की बात
शेयर करते होगे
सोचते सोचते मैं अतीत में
इतना खो जाती
तभी अतीत और वर्तमान के बीच
सेतु के रूप में सुमित को
अपने करीब पाती
एक सहचर के रूप में सुमित को पाकर
निश्चिन्त और निशब्द हो जाती
उसकी बाँहों में झूलकर
उनके सानिध्य में कमी कम
खलती थी अपनों की
अफसोस नहीं होता
अपने अपूर्ण सपनों की
संयोग
दीपावली पर भाई के टीका हेतु
सुमित के साथ पीहर पहुची
देख अपनों का व्यवहार
पैरो की जमीं खिसकी
किसी को मेरी परवाह नहीं
मेरे लिए सबके पास वो गर्मजोशी दिखी नहीं
लगा सबके लिए मैं एक अनचाही
वस्तु बन गयी
जब भी मैंने अपने पूर्वाधिकार के साथ
कोई बात कहनी चाही
अपने को उन लोगो से उपेक्षा और
अवहेलना का शिकार ही पाई
पापा ने भी हाल चाल और
बातचीत की खानापूरी ही की
कही भी वो गर्मजोशी नहीं दिखी
हमें तो लगा था की सब
हमें देखते ही हाथो हाथ उठा लेगे
मेरे तो पाव ही जमीं पर नहीं पड़ेगे
लगा लोगो को हो क्या गया
की सब हमसे कन्नी काट रहे
मेरी हर बात जान बूझ कर टाल रहे
मैं हूँ एक अवांछित वस्तु
इसका अहसास करा रहे
मन मेरा जार जार रोना चाहा
तभी बैठक में पापा को
मम्मी से बाते करते पाया
जल्दी से कुमकुम के बाद
गुडिया का कर विवाह
जल्दी से गंगा नहाने की
थी उन्हें चाह
बाद में बबलू की करेंगे
धूम धाम से शादी
करेंगे पूरे अरमान अपने बाकी
बहू को घर में लाने की बेताबी
उनकी बातो में प़ा रही थी
उनके शब्दों में एक
नई खनक प़ा रही थी
जहाँ अपने बिना पापा के निराधार
व शुन्य की थी कल्पना
अफसोस मेरे विछुडाना उनके लिए
बस हो गया था एक सपना
सत्य ही लगा
कर ले बेटी आज भी
त्याग चाहे जितना
बेटे का स्थान उसके लिए
है एक सपना
और आज भी है वो
एक पराये वस्तु जितना
मै जडवत सुनती रही
बातें उनकी सारी
लगा कहाँ गया पापा का
प्यार वो भारी
जिस घर के संस्कार पर था
हमें स्वाभिमान इतना
अपने जिस परिवार पर गुमान था इतना
तरस आयी देख उनकी सोच अदना
हृदय की उग्र पीड़ा ले आंसुओं का समुन्दर
पी लेना चाहा सारे दर्द को अन्दर ही अन्दर
मेरी सिसकियों ने छोड़ दिया
मेरी हिचकियो का साथ
तभी महसूस हुआ कंधे पर
कोई भारी हाथ
पलट कर देखा सुमित मुझे
पीछे से सहला रहे थे
भर बाँहों में मुझे जी भर समझा रहे थे
चलो जल्दी से टीका कर
आओ चले अपने घर
उनके समझाने के साथ ही साथ
मेरी सिसकियाँ बदती जा रही थी
अपने घर की परिभाषा
अब समझ में आ रही थी
जो बातें कभी माँ बापू के बाँहों में
हुआ करती थी
वो आज पती के बाँहों में प़ा रही थी
एक बार पुनः आंचल में दूध
और आखों में है पानी को
चरितार्थ होते देख प़ा रही थी
एक लड़की की व्यथा को
पुनः अपारभाषित प़ा रही थी
भर ले समाज चाहे
कितना भी दम
एक नए सूर्योदय की और
बढेगा बस बातो के सहारे ही
हमारा कदम

सोमवार, 22 नवंबर 2010

खुशियाँ

आजीवन
खुशिओं की तलाश में रहते है हम
समृधि में ही खुशिओं को तलाशते है हम
रोज एक नया लक्ष्य बनाते है
उनके प्राप्ति के उपरांत खुशियाँ मनाते है हम
पर पुनः एक नए लक्ष्य की चाह
उन खुशिओं को छणिक बना देती है
सागर क़े करीब ही प्यास का
अहसास करा देती है
पुनः जीवन में वही नीरसता खालीपन
और उतकाहट भर देती है
जहाँ से प्रारंभ किया होता है सफ़र
फिर वही पंहुचा देती है
पुनः एक सच्ची खुसी की चाहत
बेचैन बना देती है
वैसे भी एक भ्रम
पाले हुए है हम
की जितना वैभव और सुविधा जुटायेगे हम
उतना ही संपन्न सुखमय और खुशियों से
भरा जीवन बितायेगे हम
जबकि सच्चाई है ये
उतना ही परेशां होते है हम
अपने वैभव और स्वार्थ को पूरा करने हेतु
अनेक अनचाहे और असामाजिक कदम उठाकर
स्वयं आत्मग्लानी में हो रत
दुसरे को दुःख देते है हम
तभी तो पश्चिम के देश तमाम शानो शौकत
और वैभव के उपरांत भी रहते है उदास
आज भी उनको रहती है सच्चे सुख
और खुशिओं की तलाश
जिनकी खोज में उन्हें भाते है
हमारे अध्यात्मिक फूलों और
समृधि संस्कृति के विरासत के पलाश
पंचंत्र की छोटी सी कहानी
कर देती है दूध का दूध
और पानी का पानी
एक योगी हरिद्वार के गंगातट पर
अपने लक्ष्य हेतु तल्लीन
तप में लीन
अपनी छुदा हेतु कर रहा था भिक्षाटन
उसके पास आकर रुका नगरसेठ का टमटम
सेठ ने कहा अरे करो कुछ उद्योग
इससे फिर क्या होगा योग
कमाओगे पैसा ढेर सारा
फिर क्या करूँगा मैं किस्मत का मारा
कर लेना विवाह लेकर एक अच्छा घर
होगा क्या पर
घर में कूलर पंखा और टीवी लगवा लेना
खूब बढ़िया बिस्तर सजवा लेना
और ठाठ से बिस्तर पर लेटकर टीवी देखना
जीवन का मौज लेना
योगी ने kaha छान भर के लिए शुन्य में निहार
मैं तो उससे भी अच्छा कर रहा हूँ बिहार
जो इतना जतन के बाद पता
उससे कही ज्यादा मैं संतोष से कमाता
बिना इतना तत्मजाल किये
ठाठ से घाट पर रह रहा हूँ
आसमान को बना छत तारो की तन चादर
जमीन का बना बिस्तर खुशियों की भरी गागर
लिए अंतरीक्ष की टीवी देखता हूँ
दूर ही रहो ई सेठ
मैं अपने को तुमसे कही ज्यादा ही खुश पाता हूँ
सारांश
आधुनिक बाजारवाद ने बेशक
कम कर दी है दिलो की दूरियां
पर सत्य ये भी है की अन्तरंग संबंधो में
अब नहीं रही वो नजदीकियां
वस्तुतः इसने हमारे तमाम प्राचीन
मूल्यों को कर दिया है ध्वस्त
साथ में हमें किया है पस्त
हमें है गिला
की इन ध्वस्त मूल्यों का हमें कोई
विकल्प नहीं मिला
छीन कर हमारी खुशियाँ और चैन
हमको हद से ज्यादा कर दिया है बेचैन
दिनभर की भाग्दौर के बाद भी हम
अपने आपको खली हाथ पाते है
बेशक कमा लेते है मनचाहा पैसा
पर शरीर को रोगों का घर बना लेते है
तमाम खुशियों की चाह में
स्वयं को भुला बैठते है
रिश्तो को भी तार तार करने मैं
संकोच नहीं करते है
जब उन खुशियों को भोगने का समय आता है
शारीर साथ छोड़ जाता है
अस्तु इसबात को जाने
अपने अप को पहचाने
ख़ुशी अंतर्चेतना से जुडी होती है
अपने मन के भीतर बसी होती है
खुश होता है चित्रकार अपनी सुन्दरतम कृति पर
तो संगीतकार अपनी बेहतरीन धुन पर
सेठ अपनी माया पर
तो यौवना अपनी सुन्दर काया पर
खुश होता है कवी अपनी सुन्दर तम कविता पर
तो गंगा अपनी सविता पर
निर्पेक्ष्य सत्य ये है की दुसरे के चहरे पर
मुस्कराहट देने से जो ख़ुशी मिलती है
तमाम खुशियों से बड़ी होती है
ख़ुशी महत्वाकंछओं का नहीं है हनन
हाँ बेशक है इक्छओं का परिसीमन
कर्मयोग की परिधि में संतोष जैसे
मानवीय मूल्यों का है मूल्याकन
भूल होगी की ख़ुशी को वैभव
और विलास क़े राह पर देखा जॉय
अच्छा है मन की बातें ही
ख़ुशी का सबब बन जाये
जरूरत है उन्हें पहचानने
व अहसास करने की
तो निर्मेश देर किस बात की
आओ खुशियों से इस संसार को भर दे
अपने एक एक कतरे से कर परोपकार
इस धरा को उपवन कर दे ।

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

मैंने दीपावली मना लिया

नित्य की भाँती
काशी के महाश्मसन की सिदियों से चदता
खानाबदोश की तरह

जीवन मरण की गुत्थियों से उलझता

पुनः सुलझाता

अंतस्तल में अंतर्द्वान्द्वा के दिए को जलाता बुझाता

गलियों से गुजरने को उद्यत

संभवतः रात्रि का द्वितीय पहर

आतिशबाजियों से पटा सन्नाटे को चीरता शहर

पास में मरघट

अपने अभीष्ट को साधता तांत्रिको का जमघट

कुल मिलकर समवेत में कह सकते है

हास्य और रुदन का मिश्रित स्वर

जीवन मरण का अद्भुत संगम

एक ओर घाट के ऊपर खुशियाँ जहा ले रही थी अग्डैया

सजी चहुँ ओर दीपो की लडिया

आधुनिक झालर और बत्तियां

वही दूसरी ओर गली के एक माकान में

दिखी कुछ स्याह परछियाँ

ध्यान से देखने पर पाया

मकान पर वृध्हाश्रम था लिखा

खिडकियों से झाकती दिखी

कुछ बुदी कातर और याचक निगाहें

झुकी कमर और कमजोर बाहें

उत्सुक्तावास अन्दर मैं प्रविष्ट हुआ

ख़ुशी के इस मौके पर मुझे देख

उनके अन्दर हुआ आशा का संचार

उनको लगा हूँ मैं कोई तारणहार

जो आया है उनके जीवन में

दीपावली की निशा में रौशनी जलाने

पर देख मेरे हाथ खाली

उनकी सोच लग गयी ठिकाने

मैं एकटक उनके बारे में अपनी उपयोगिता सोचता रहा

उनके लिए अपना अर्थ ढूढता रहा

उन किस्मत की मारी मों के बीच अपनी माँ को ढूढता रहा

जेब में मोबाइल लगातार घनघना रहा था

शायद घर से फोन आ रहा था

मनाने को त्यौहार

छोड़ने को पठाखे और अनार

कर उसे मैं स्विच ऑफ

उनके करीब बैठ गया लेकर लिहाफ

वस्तुतः मैं महाकाल के दर्शन के लिए आया था

इसीलिए विशेष कुछ साथ नहीं लाया था

चल्पदा उनसे बातों का दौर

टूटने लगा उनका मौन

कुछ ने अपनी व्यथा बेबाक सुनाई

अपने बहू बेटियों की बातें बताई

कुछ से उनके परिवार उनकी चेष्टाओं और उनके प्रति

उनके कर्तव्यों के बारे में पूछता रहा

घंटो उनके कष्टों से दो चार होता रहा

उनकी मौनता और उनके आसुओं में प्रतिउत्तर पता रहा

मैंने कहा माते ये कैसी है विवशता

चाह कर भी इन आँखों से आंसू नहीं है निकलता

देख ऐसी विपन्नता

शायद ये सूख चुके है

अपना मायने खो चुके है

हो गया है क्या इस आज की पिदी को

जीने पर चढ़ कर जो तोड़ती है सीदी को

क्यों परिचित नहीं वो इन बातो से

स्तन में दूध न होने पर भी लगाई रही होगी उन्हें अपने तन से

शायद कई बार दूध के बदले में स्तनों से रक्त भी रिसता रहा हो

अपने उस रक्त को भी उतने ही प्रेम से श्रद्धा व स्नेह से

बिना दर्द के जिसने उन्हें पिलाया हो

पर शायद ही कभी उन्हें अपने से दूर किया हो

जिस माँ ने उन्हें अपने रक्त मिश्रित दूध से सीचा है

उन्हें क्यों इन्होने अपने जीवन से उलीचा है

सिहर गया तन

हा हकार कर उठा मन

मैंने अपने अप को संभालने का किया प्रयास

क्यों टूटते दिख रहे सब आस

चारो और देख अत्म्रता स्वार्थपरता

यद् आती हमें बरबस जीवनमूल्यों से युक्त

अपने अतीत की सम्पन्नता

मै जानता था

उन्हें मै भी दे पाउँगा नहीं सिवाय

मीठे कुछ सहानुभूति के बोल

अशई मन से अपनी जेबे रहा था टटोल

चाँद रुपयों ने मेरी लाज बचाई

मैंने कहा माई

रख ले इसे आप आज

कल होगा कुछ साधनों के साथ पुनः मिलाप

देखता हु मै आपके घाओं पर कितना मलहम लगा पता हूँ

क्योकि मै अक्सर अपने विचारों को किये आत्मसात

सिमित संसाधनों के साथ

स्वयं को नितांत अकेला पाता हूँ

बुदी आखों के झरझर

आंसुओं ने मुझे किया विदा

मुझे लगा मैंने

दीपावली मना लिया

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

लो देख लो मेरी दुनिया

घर लौटने पर
छोटू ने सुनाया
ताई के फोन
आने की बात बताया
भैया बहुत बीमार है
तुरंत कानपुर है बुलाया
मैंने सोचा
भैया के चार बच्चे
सभी व्यवस्थित
लेकर पद अच्छे
ऐसे में मैं कहाँ से भाया
जेहन में सारा
अतीत नजर आया
की किस तरह भैया ने बच्चो के
शिक्षा दीक्षा की दे दुहाई
अम्मा बापू परिवार व
गाँव को ठुकराया
अपने पारिवारिक सामाजिक
जिम्मेदारियों से मुख मोड़ कर
कानपुर में एक आलीशान
मकान बनवाया
घर और गाँव को एकदम
से ही भुलाया
मुझे याद है बापू की तेरहवी के लिए भी
बड़ी मिन्नत के बाद समय निकाला
खैर बिना रुके शाम के ट्रेन से ही
मैंने कानपुर का किया रुख
वहां काप गया
देखकर भैया भाभी का दुःख
रुग्ण जर्जर और अशक्त भैया की
एक लम्बे अंतराल के बाद
मुझे देख बाछे खिल गयी
मानो जिसकी हो प्रतीक्षा
वो चीज मिल गयी
मै भी मूर्तिवत भैया के गले लग गया
अविरल आसुओं की धार
कोरो से बह चली
मैं यंत्रवत सोचता रहा
हैरान होकर कभी भैया
कभी भाभी को देखता रहा
भाभी को आंचल से अपने आसुओं को
पोछने की असफल चेष्टा को
अनदेखा करता रहा
भैया इ क्या हाल बना रखा है
कहते जब मैंने उनकी गोद में
अपना सर रखा
बापू को भैया के रूप में
मानो जीवित देखा
स्नेह से जब सर में मेरे वो उगलिया फिराने लगे
उनकी गोद में अमरुद और आम के
पेड़ों का बचपन देखा
सयंत होकर मैंने पूछा
विनोद अंकुर और मुन्ना हैं कहाँ
अभी तक आई नहीं क्यों मुनिया
भैया ने दो तिन छोटे पार्सल
और कुछ चिट्ठियां मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा
लो देख लो मेरी दुनिया
कापते हाथो से मै एक एक पत्र पढने लगा
विनोद ने लिखा
कार्यालयी कार्य से बाहर जा रहा हूँ
आपके बताये कर्मयोग के रस्ते पर चल रहा हूँ
कुछ रुपये भेज रहा हूँ
साथ में आपके स्वस्थ होने की कामना कर रहा हूँ
अंकुर ने भी अपनी असमर्थता कुछ इस तरह सुनाई
नेहा के परीक्षा की बात बताई
आगे लिखा पापा हम आ नहीं सकते
आपको है गुड विशेश भेजते
आगे का हाल भेजिएगा
कोई जरूरत हो तो निसंकोच कहियेगा
मुन्ना की व्यथा भी इनसे अलग नहीं थी
हम तो आने के लिए रहे ही थे सोच
अचानक मंजू के पैर में आ गयी मोच
कुछ रुपये भेज रहा हूँ
अंकुर को फोन कर रहा हूँ
उम्मीद है आप जल्द ठीक हो जायेगे
हम पुनः अच्छी खबर पाएंगे
मुनिया ने अपने पत्र में
अपने पति के ट्रान्सफर का दे हवाला
आने से ही कर लिया किनारा
मैं अपने को सँभालने का
करने लगा असफल प्रयास
धुम से बिस्तर पर बैठ
सोचने लगा कैसी होती है आस
सारा संसार मुझे घूमता नजर आया
लगा इतना खोने के बाद
भैया ने क्या पाया
भरी आँखों से भैया ने कहा
परिवार क्या होता है ये आज मैं जान पाया
पर सच जो मैंने बोया वही तो है पाया
भाभी ने कहा लल्ला
क्या करे बेटों की भी है
अपनी अपनी मज़बूरी
वर्ना है ही क्या ये दूरी
एक ओर जहा भैया के अन्दर
पश्चाताप के आंसू पा रहा
वही भाभी को आज भी
जहा का तहा पा रहा
मन अजीब अंतर्द्वान्दा में फस गया
जमाना आज की दस्ता कह गया
तभी भैया ने रखा मेरे सर पर अपना हाथ
निरीह नजरो से कहा
निर्मेश चाहिए तुम्हारा साथ
मुझे अपने वर्तमान पर
बेहद तरस आया
तुलना करने पर
अपने अतीत को बेहतर पाया

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

मानों विराट क्षितिज को दे दिया हो जैसे एक छोटा सा बसेरा

बापू के अवसान के उपरांत
माँ को मै गाँव से शहर लाया
सोचा माँ के ममता की
बनी रहेगी मुझ पर छाया
काफी दिनों से दूर था
मुझसे मेरी माँ का साया
चूंकि बापू की बीमारी और
गाँव को न छोड़ने की चाहत ने
मुझे कई बार सिद्दत से तडपाया
टीस हमेशा थी की अपनी
इच्छानुसार मै उनकी
सेवा कर नहीं पाया
एक पिता की चाहत होती है
उम्र के इस मुकाम पर
हरदम रहे पुत्रो का साथ
जीवन की इस राह पर
पर रोजी रोटी के ठौर ने
इस जैविक चाह को
जी भर कर रुलाया
बापू को न चाहते हुए भी
मैंने है बहुत तरसाया
किसी तरह माँ को दे दिलासा
अपने साथ लाया
बेशक माँ तो गाँव छोड़ने को
नहीं थी तैयार
बापू के यादों से भरा था घर द्वार
पर अंत में यह समझ कर की
वह हो गयी है अब बेकार
पहले तो बापू की सेवा में
दिनरात गुजर जाता था
रात को भरपूर नीद आता था
पर कैसे कटेगे यहाँ दिन और रात
काटने को दौडेगे खेत
खलियान और बाग़
यह सोच कहीं बबुआ
चला चली अब तोहरे ही साथ
हमरे ऊपर ज रही तोहार हाथ
तो हमारो नैया हो जाई पार
स्टेशन से जी भर गाँव को देखा
पुनः माँ के माथे पर देख
चिंता की रेखा
मैंने कहा माँ कहे तू होए रहू उदास
ऐजेहा फिर आवा जायेगा
बापू का याद तजा किया जावेगा
ऐसा कह मै उन्हें हँसाने का
करने लगा एक असफल प्रयास
पर कभी विशाल खेत खलियान
और बखरी होते थे जिनके गवाह
शहर की संकीर्ण जिंदगी में
रुक गया उनके जीवन का प्रवाह
किसी के पास उनके करीब
बैठने के लिए समय नहीं
अकेले बालकनी में बैठी
रहती थी आपही
बस देखती सूरज को होते अस्त
पत्नी गृहकार्य और बच्चो के
होम्वोर्क में व्यस्त
शेष समय दूसरों से गप्पें
मारने में मस्त
बच्चे आधुनिक पदाई से पस्त
में भी हो चला था क्रमशः
अपराधबोध से ग्रस्त
शायद माँ सबके लिए बोझ बन गयी थी
लग रहा था किसी तरह
जिंदगी की गाड़ी को खीच रही थी
ऊपर से अपनी प्रेयसी के बार बार
माँ के आने से अन्पैठ
लगने की बात
पहुचाते बहुत ही ह्रदय पर आघात
में बेबस हो चला था लाचार
में चाह कर भी नहीं छेदता
अपने साले साली और सास
के आने की बात
जिनके आने पर घर में छा जाती थी
रौनक और खुशियों की बरसात
बच्चे भी उड़ाते बात बात में
माँ का उपहास
सबके मध्य मेरे समायोजन का प्रयास
माँ का देख चेहरा उदास
जी किया माँ को ले गाँव ही लौट जाऊ
छोड़ कर नौकरी घर वही बसौऊ
तभी दिखता मुझे
एक तरफ अतीत तो
दूसरी तरफ भविष्य करता परिहास
कार्यालय से आने पर
में माँ की गोद में रख सर
अपने बचपन की यादे ताजा करते हुए
माँ के साथ अपनी भी
पूरी करता इछ्छा
वह भी हर शाम बेसब्री से करती
मेरे कार्यालय से लौटने की प्रतीक्षा
सोचता हूँ कैसी
अभागी है आज की पीढ़ी
चढ़ाना चाहती है ऊपर
निचे गिरा कर सीढ़ी
ये जानेगे क्या माँ के आँचल
और गोद की ममता
सच तो यह है की जिन्सवाली माँ पर
आँचल कहाँ है फबता
आज का युवा तो बस
नौकरों के हाथ ही पलता
बरबस में सोचता की में
माँ को कौन सा सुख दे रहा हूँ
अपने स्वार्थ के लिए उन्हें
खेत खलिहानों से दूर कर
उसे दुःख ही तो दे रहा हूँ
जैसे एक स्वतंत्र गौरैया को
पिजड़े में डौल कर रख दिया
उसके पास चावल का कसोरा
मानों विराट क्षितिज को दे दिया हो
जैसे छोटा सा एक बसेरा
निर्मेश सच जहाँ हो अपने चाहनेवाले
वही होता है परिवार
खून के रिश्ते तो अब
लगने लगे है बेकार

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

बुधिया

जीवन की वयास्तामम
आपाधापी से पस्त
फिर भी मस्त
बड़े ही अनुनय से एक
विवाह समारोह का बना मै गवाह
जहा जारी था अपने चरम पर
बारात का प्रवाह
युवाओ के मध्य तलाशता रहा मै
किंचित एक बूढ़ा
पर हमें ढूढ़ने से भी नहीं मिला

मै भूल गया की
ये है बीसवी कम इक्कीसवी सदी ज्यादा
आजका बुजुर्ग तो स्वयं
ऐसे अवसरों से दूर रह
बचाता है अपनी मर्यादा
तभी दिखा भीड़ मे उम्मीद का एक दिया
जिज्ञासवास पूछने पर
नाम बताया बुधिया
सर पर रखे प्रकाशपुंज का कलश
देखने मे लगता था एकदम
लचर और बेबस
अन्य मजदूरो के साथ प्रयासरत
मिलाता कदम से कदम
उर्जहीन बदन दिखता था बेदम
क्षुदा और उम्र से बेबस
व्यग्र दिखता लुटाने को सरवस
तभी आज मेरे यार की शादी की बजी धून
मदिरारत युवा नाचते
नाचते हो गए संग्यशुन्य

एक जाकर बुधिया से टकराया
पलट कर बुधिया को
एक घूसा भी जमाया
साले कायदे से नहीं चलते
हमें देख कर तुम भी मचलते
बुधिया गिर पड़ा
पर अपने रोशनी के गमले
पर पिल पड़ा
सोचा अगर ये टूट गया तो
मालिक कम से निकाल देगा
आज की मजदूरी भी कट लेगा
तो कल वो अपनी बीमार
लछिया की दवा और खाना
कहा से लायेगा
यह सोच उसे टूटने से
न केवल बचाया
वरन मुस्तैदी से उसे पुनः
अपने सर पर सजाया
इसी बीच वह युवक अन्य से
लड़ने मे हो गया तल्लीन
मेरा अच्छा खासा मन
हो गया मलीन
गृह स्वामी सबसे कहता
रहा भाई भाई
किसी को भी उस पर दया नहींआयी
उस युवक पर कई लोग पिल पड़े
पड़ने लगी उस पर जुटे चप्पले
तभी बुधिया अपना प्रकाश कलस
रख किनारे उस युवक के करीब आया
उसके ऊपर लेट कर
उसे मार से बचाया
लोगो से बोला पहले ही
कितनी देर हो गयी है
आपलोगों को क्या पड़ी है
यहाँ गृहस्वामी की मर्यादा
दाव पर लगी है कहकर लोगो को समझाया
बारात को आगे बढाया
मैंने पूछा चाचा ये कैसे हो गया
जिसने मारा आपको वही
आपका प्रिय हो गया
बुधिया बोला बेटा उसमे मुझे
आज से बीस वर्ष पहले
खो चुके बेटे की छबि पाया
किनारे खड़ा वह युवक शायद
पश्चाताप के आंसू बहा रहा
लहूलुहान हुए अपने किये की
सजा पा रहा
बुधिया स्नेह से उसे सहला रहा

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

मीठी वाणी से पाला

कार्यालय के

पुरे दिन की माथापच्ची से त्रस्त

कार्य की अधिकता से पस्त

दूर होते ही सूरज की छाया

मैं घर को लौट आया

की तभी एकाएक मेरा

मोबाइल घनघनाया

थके हाथो से मैंने मोबाइल को
कान पर लगाया
उधर से बहूत ही शांत धीर
व एक मधुर स्वर को पाया
लगा कानो में किसी ने
शहद घोल दिया हो
मिश्री से पूरे
बदन को तौल दिया हो
पूरे दिन के थकन से
मनो निजात मिल गयी हो
न चाहते हुए भी मानो
कोई सौगात मिल गयी हो

वस्तुतः
वह एक इन्वेस्टमेंट कम्पनी
की मुलाजिम थी
एक पौलिसी के लिए
पीछे पड़ी थी
मैंने पैसे के अभाव का देकर वास्ता
बंद करना ही चाहा था उसका रास्ता
तभी उसने कहा सर
प्लीज़ मेरी बात पहले सुन ले
फिर आपको जो लगे
गुण ले
मुझे उसकी आवाज की मधुरता ने
पुनः उसमे छिपी व्यथा ने
पूरी पवित्रता से
तरंगित कर डाला
एक अवांछित अनिच्छा से ही सही
उससे पर गया पला
बातें करते करते मुझे
हलकी नीद ने आगोश में ले लिया
तभी मेरी भार्या ने मुझे हिलाया
लिए हाथ में गरम चाय का प्याला

तब तलक उसकी बातें थी jaree
मुझे लगा की किस्मत की है वो मरी
लगता है टार्गेट की है लाचारी
करती भी क्या बेचारी
में थोडा द्रवित हुआ
फोन कटते हुए कहा की
अच्छा कल बिचार करेंगे
उसने तुरंत ही कहा सर
हम आपके फोन का सकारात्मक
पहल के साथ इंतजार करेंगे
चाय पीकर में सोचने लगा
मीठी वाणी का प्रभाव
लगता था की सारी थकन का
हो गया आभाव
आया रहीम की वो पंक्ति
जिसमे थी ये उक्ति
मीठी वाणी बोलिए मन का आप खोय
औरन को सीतल करे आपहु सीतल होय
यह सोचते सोचते
मैंने उनसे कल मिलाने को
अपनी डायरी में सकारात्मक
तिप्परियों के साथ नोट कर डाला
बेशक मेरा भी पद गया था
मीठी वाणी से पाला
में लगा सोचने
की अगर इतनी ताकत है मीठी वाणी में
की कुछ ही मिनटों में
कर ले दुनिया मुठ्ठी में
तो फिर हम अपनी सर्दारीयत के लिए
कटु वचनों व कटु युद्धरत कर्मो का
लेते है क्यों सहारा
देकर दुहाई धर्मो का

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

जीवन सजीव !

ले स्वछंदता का आचार व विचार
नित टूट रहे संयुक्त परिवार
लगने लगे है बेमानी
पैत्रिक घर द्वार
मायने खोते जा रहे सिवान
बीमार हो रहे बखरी
और खलिहान
पप्पू तो उड़ चले अमेरिका
बबलू भी चले ब्रिटेन
अम्मा और बाबु को
पूछता है कौन
बेबस वो चल पड़े गाँव की ओर
ले दादी की चटाई
और दद्दा का लालटेन

ज्यादा चाहने की लालच में
है कुछ टूट रहा
मानवीय संवेदनाओ से साथ
पीछे छूट रहा
लुप्त हो रही क्रमशः रिस्तो की मिठास
वो गाँव के चौपालों के rasile अहसास
सहानुभूति परोपकार प्यार व मस्ती
अपनापन कही गूम हो गया
पश्चिम का प्रभाव
हमारे समाज पर है
इस कदर हावी हो गया
की दम तोड़ते ओ गढ़ते नित
रिश्तो की नयी परिभाषा
जिनके बचने की दिखती
अब नहीं कोई आशा

संस्कारयुक्त शिछा के अभाव में
ये युवा नैतिक लछ्य से भटक जाते
अपने जनको को छोड़
देसी बिदेशी मेमो के साथ उड़ जाते
ऐश और भोग को
जीवन का आदर्श बनाते
मनो अपने माँ बाप से
अपने खो चुके बचपन का
बदला चुकाते
जिन्होंने बाजारवाद का दे वास्ता
छीन कर उनका बचपन
उनको दिखाया विकास का रास्ता
अपनी वन्छ्नाओ को उन पर लद्दा
सिखाया उनको कमाना ज्यादा
अस्तु
अब हमारे दोनों ही
में है जल भरा
कब तलक वो संभलेगा भला
आज हमें भी इस दिशा में सोचना होगा
नए सिरे से पुनः मंथन करना होगा
ऐसी स्थिति के लिए
हम भी कम नहीं जिम्मेदार
अपने बच्चे में पलते सपने हज़ार
और उन्हें किसी भी कीमत पर
पूरा करना चाहते है
बदले में उनके बचपन का
बलिदान मागते है
आज विज्ञानं भी
इस बात को मानता
की प्रकृति किसी के साथ
अन्याय नहीं करती
सबके अन्दर वो कोई एक
गुण विशेष भारती
उन गुणों को विकसित
करने के जगह
हम उन पर चलते है
अपनी मर्जी
जिसके बदले में वो हमें देते है सजा
बदल देते है एक सुसंगठित समाज की फिजा

अतः
शिछा ही नहीं संस्कार भी चाहिए
विकास की इस अंधी दौड़
में नैतिक मूल्यों की पतवार चाहिए

निर्मेश तभी रख पायेगे हम

एक मजबूत समाज की नीव

बेशक वो भी जी पायेगे

हमारे साथ जीवन सजीव !

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

पूस का पाला

अभी कल की बात
मै था अस्सी घाट पर
मित्रो के साथ
पता चला बी एच यूं अ इ टी के
तिन छात्र डूब गए
हम सकते मै आ गए
पुरे घाट पर छात्रो और
अध्यापको की भीड़ भारी
किनारे पर बैठी उनके माएं बिचारी
रुदन से उनके वातावरण
गमगीन हो गया सारा
स्तब्ध गंगा को अपलक निहारता
पिता किस्मत का मारा
क्या क्या उम्मीदे थी उसे
की किस तरह बनेगे वे नौनिहाल
उनके बुदापे की लाठी ये लाल
पर बीच मै ही सफ़र जिंदगी का
छोड़ कर चले गए
न जाने किसके सहारे वे अपने
बूड़े माँ बाप को छोड़ गए
मन मेरा उद्वेलित हो गया
एकाएक आक्रोस से भर गया
की आखिर क्या समझते है
ये बच्चे अपने आपको
क्यों समझते नहीं
वो इस पापको
की क्या उनके माँ बाप ने
इसी दिन के लिए उन्हें पाला था
क्या अपने खाने का निवाला
इसीलिए पहले उन्ही के मुह में डाला था
तनिक भी अगर सोचे होते
बेजा मौज मस्ती से बचे होते
जिसे की होस्टल को चलते समय
बापू ने कम पर माँ ने बहुत
ज्यादा समझाया होगा
कितने अरमानो से आचार और मुरब्बे का
डब्बा थमाया होगा
और कितनी बलिया लेकर कहा होगा
बचवा जातां से रहियो
अपन ख्याल रखियो
मौज मस्ती के चक्कर मै
जीतेजी उनको मार डाला
इसके बूते वो सहेगे
अब पूस का पाला
क्या खूब ख्याल रखा उनका इन्होने
पाला था बारे अरमानो से उन्हें जिन्होंने

बुधवार, 29 सितंबर 2010


विचलित है मन
कृष्ण कराओ
पुनःअपने विराट स्वरुप का
दर्शनविचलित है
मनआसन्न एक
परिवर्तनगीता का
भाष्यपठनीय
पाठ्यपूरित
दर्शनीय एक और
अग्निपथपिटती परंपराओं की लकीरें
क्या खोल पायेगी
उन शहीदों की तकदीरें
जिन्होंने सहर्षकिया था
जीवन अर्पण
उनकी विधवाएं मांजती आज
इन नेताओं के घर बर्तन
बच्चे जिनके चाटते
इनके आज जूठन
सरकारी अनुदानों हेतु
लगाते चक्कर
खाते टक्कर पे टक्कर
भूखे भेड़ियों का बन गयी शिकार
अस्मत हो गई तार - तार
बिक गए जिनके घर- dwar
aj भी जोहती
निराला की वह तोड़ती pathhar
apnaपालनहार !!

नदी डूब गयी

हिमनदी छोड़ पथरीली रह
रेतीले पत्थर को तराश
नर्म धूप जाड़े की लायी
फिर से खिलते हुए पलाश