बुधवार, 12 दिसंबर 2012

राजा बेटा



पापा आज शाम तक मुझे

मेरा विडिओ गेम मिलेगा

बन्दा तभी कल स्कूल के लिए हिलेगा

बिंदास कहते मै

बैग लेकर

स्कूल के लिए चला गया

पापा के लिए एक नई चिंता छोड़ गया



एकलौता होने से

जिद मेरे नाक पर रहती थी

प्राइवेट फर्म में कार्यरत

पापा के कम आय की

मुझे कोई फिकर नहीं थी



हर मांग पूरी होने से

एक नई मांग

पुनः पैदा हो जाती

पापा कैसे

पूरे परिवार के खर्च के साथ

उसे पूरा करते थे

इसकी मुझे उस समय तक

तनिक भी खबर नहीं होती



शाम को पापा के हाथ में

एक पाया

ख़ुशी से छीन कर उसे

मै चिल्लाया

लेकर बाहर दोस्तों को

दिखाने भगा

दोस्तों को न पाकर

मायूस मै घर लौट आया



बैठक में मम्मी को

पापा से कहते सुना

आप दिन रात इतना मेहनत करते है

जान देकर ओवरटाइम करते है

तब जाकर किसी तरह

सबके पेट भरते है

आपके पास बस

दो शर्ट और दो जोड़ी जुराबे धरी है

ऊपर से सब फटे पड़ी है

व्यर्थ ही पप्पू की जिद

पूरा करने में परेशान रहते है

जो की समाप्त होने की जगह

नित नए बढ़ते है



पापा चेहरे पर एक मायूस फीकी

हंसी लाते हुए बोले

भाग्यवान बच्चा है

चलो कभी तो समझेगा

बचपन उसके जीवन में

दुबारा क्या पनपेगा

मेरा क्या सर्दी का सफ़र है

जुराबे जूते के और

शर्ट स्वेटर के अन्दर है

फिर कभी बन जायेगा

पर पप्पू का बचपन

दोबारा कहाँ से आयेगा



मम्मी पापा की इस

मर्मश्पर्शी वार्ता ने

मुझे हिला कर रख दिया

एकाएक मेरे ज्ञानेन्द्रियों को

जगा कर रख दिया

मै दौड़ कर पापा के

सीने से लग गया

सुबकते हुए कहा

पापा इसे अभी जाकर

वापस कर आओ

अपने लिए पहले एक जोड़ी

जुराबे और एक शर्ट लाओ

कहते कहते मै

फूट फूट कर रो पड़ा

तभी पापा का स्नेह्सिंचित हाथ

मेरे सर पर पड़ा



बोले नहीं बेटा

दोषी तो मै हूँ

जो कि अपने बेटे की

एक छोटी सी मांग भी

पूरी करने में अक्षम हूँ

तुम्हारे प्रतिरूप में मैंने

अपने बचपन को देखा है

कोई कुछ भी कहे पर

तू तो मेरा

राजा बेटा है



निर्मेश



मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

दुशाला

ड्धर कई दिनों से

भयंकर पूस की ठण्ड में

दिनेश माँ को मंदिर

सत्संग जाने में हो रहे

कष्टों को देख रहा था

मगर लाचार

अपनी सीमित आय के कारण

कुछ सकारात्मक पहल

कर नहीं प् रहा था



बापू की मौत के बाद

अब यही सब माँ के

समय काटने का सहारा था

वरना बहू को भी बड़ी उमंग से

माँ ने ब्याह कर लाया था

पर जैसा की होता आया था

बहू से उसने कुछ खास

सुख नहीं पाया था



दिनेश दोनों के बीच

किसी तरह सेतु और संतुलन

बनाने का प्रयास कर

अपनी गाड़ी चलाता रहा

हर बार माँ को ही पीछे हट

अपने अरमानो का

गला घोटते पाया था



फैक्ट्री से निकलते हुए

दिनेश अपनी तनख्वाह के

रुपये गिन रहा था

माँ को हो रहे कष्ट के बारे में

सोचते हुए माँ से आज एक

बढ़िया गरम दुशाला लेकर

आने का सुबह ही

वादा कर आया था

तभी रास्ते में मोबाइल घनघनाया

उधर से फोन पर

पत्नी को पाया



मेरी माँ आज शाम को

आपकी माँ को देखने आ रही है

कुछ पोते पोतियों को भी

अपने साथ ला रही है

नाश्ते में चुरा मटर और गाजर के

हलवे का पत्नी से फरमान पाया

ऊसका मन झुझलाया

मरता क्या न करता

सभी समानो के साथ फिर भी

अपनी माँ के लिए

भविष्य के वित्तीय संकतो से अंजान

एक बढ़िया गरम दुशाला

आखिर खरीद ही लिया

और देखते ही देखते

घर आ गया



पत्नी ने शीघ्रता से आगे बढ़

उसके हाथ के बोझ को हल्का किया

महंगा बढ़िया दुशाला देख

उसका दिल बाग बाग हो गया

तुरन्त उसे अपनी माँ को

ओढ़ते हुए बोली

देखो मम्मी आपके दामाद

मेरे दिल की बात

कितनी जल्दी जान जाते है

सच ये आपको कितने मानते है

आपके लिए कुछ न कुछ

करते ही रहते है

इसीलिये तो सभी रिश्तेदार

हमसे इतना जलते है



सामने दिनेश के माँ

खामोश खड़ी पूरे घटनाक्रम का

मूर्तिवत अध्ययन कर रही थी

अपने बच्चे के अरमानो की होली

जलते हुए बेबस देख रही थी

साथ ही दिनेश की आँखों में

अपने लिये एक विशेष

तड़प भी पा रही थी



उसे अपराधबोध से

बचाने के लिए

उसे आँखों ही आँखों में

दिलासा दे रही थी

साथ ही बहू के माँ के सामने

बहू के तरोफो के पुल भी

धाराप्रवाह बाधे चली

जा रही थी



निर्मेश

शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

ढलते सूरज के साथ
पथरीले घाटों ने
हर हर महादेव का
उदघोष किया
जीवन्तता का अहनद
नाद दिया
आँचल में समेटे
अनेक छोटे दिनकरो को
एक नूतन श्रृष्टि का
आगाज किया

स्वप्निल
अद्भुत
अवर्णनिय
शब्दहीन वाणी
मौन मूर्तिवत आकांक्षाये
सुसज्जित देख
अर्धचन्द्राकार कंठ
भागीरथी का
प्रसंग देव दीपवाली का

धन्य हे भारत
धन्य तेरी अक्षुण
परम्परा और संस्कृति का
उपवन
हे आर्यभूमि
तुझको शत शत
नमन

गुरुवार, 15 नवंबर 2012

ब्रेनवाश

ब्रेनवाश

बस के लिए लाइन में
खड़े खड़े इधर कुछ दिनों से
उसे मैं उसके दुधमुंहे बच्चे के साथ
फटी साडी में किसी तरह
अपने युवा तन को समेटे
सड़क के उस पार
बरगद के पेड़ के नीचे
हाथ से बने मिटटी के
कुछ देहाती खिलौने के साथ
दिये और कुल्हड़
बेचते देखता था
उसके अतीत से
अज्न्जन मगर पता नहीं क्यों
उसके भविष्य के बारे में भी
अक्सर मै सोचता था

कभी कभी उसके पति के साथ
उससे होती बहस पर भी
मेरी नजर पड़ जाती थी
दोनों के बीच बाते बढ़ते बढ़ते
मर पीट पर उतर जाती थी
बड़ी मुश्किल से बिक्री से प्राप्त
सारे पैसे को जबरन
छीन वह चम्पत हो जाता
बच्चे के साथ उसे
बिलखते छोड़ जाता
सिलसिला यह लगभग
अनवरत था
आज एकाएक वह मुझे
खामोश नजर आ रही थी
बच्चे पर नजर पड़ी तो
उसमे भी कोई हलचल
नहीं दीख रही थी
थक कर सो रहा होगा
मई सोचता रहा
बस के आने की प्रतीक्षा
करता रहा
तभी लाइन में आगे खड़े
व्यक्ति से पता चला
जेड की अंगड़ाई को शायद
वह नवजात सही नहीं पाया था
आज सुबह ही भगवान को
प्यारा हो गया था
तभी अचानक उसका पति
गिरते भाहराते नशे में धुत
आ गया
उससे पैसे की अपनी मांग को
एक बार पुनः दोहरा गया
उसकी पथरीली बेबस और
लाचार आँखों ने आंसुओं का
साथ छोड़ दिया था
नैन के कोरो से
आंसुओ ने पथ
अपन बना लिया था
संग्याशून्य उसने बच्चे की और
हाथ से पैसे के अभाव में
उसके मर जाने का ईशारा किया
सामान न बिक पाने के कारन
उसे पैसा देने में अपनी
असमर्थता जताया
बदले में एक लत के साथ
गलियों के सौगात पाया

बच्चे के  अवसान से
पीड़ित उसका थका और
कमजोर शरीर
कुल्हड़ और दिया पर
आशियाना बनाते हुए
कटे पेड़ की तरह भहरा गया
इस दिशा में तमाम चल रहे
प्रयासे के उपरांत आज भी
एक लाचार ट्रडिशनल
भारतीय नारी के
इतिहास को दोहरा गया

पान का पीक उसके ऊपर
थूकते वह बोला
साली कल शाम से
धंधा कर रही है
उसमे से मैंने कुछ मांग लिया
तो पंगा और नाटक
कर रही है
मुझे उसके पान के
रक्त सी पीक में
उस बच्चे क लहूलुहान
अक्स दिखा
मै विचलित हो गया था
निसंदेह आगामी एक सप्ताह के लिए
मेरा ब्रेनवाश हो गया था
निर्मेष

सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

लत

लत
अबे रुक
कहाँ जा रहा है
चल निकल पैसा
ठीक अभी चलना है
कहते एक ने दूसरे का
गला पकड़ लिया था
दूसरा बड़े ही कातर
स्वर में रिरिया रहा था
झगड़े के मध्य हो रही
बातचीत से पता चला
एक का नाम था धन्नू
दूसरे का शीतला
काल रात धन्नू ने
शीतला के साथ
शीतला के पैसे से
भदैनी के देशी ठीके पर
छक कर दारू पिया था
जीवन का असीम
आनंद लिया था
आज सबेरे ही
पुनः शीतला से धन्नू का
अमन सामना हो गया था
मै भी अपनी लम्बी वाक से
वापस आ रहा था

धन्नू बिलबिला रहा था
भैया पैसा नहीं हौ
रहेन देब कौनो और दिन
तोहके पिया देब
ई जेब में तो पैसा
दिख रहा है
साले हमको बेवकूफ
बना रहा है
चल चल कहते शीतला ने
अपने मजबूत हाथो से
जबरन धन्नू के हाथों को
रख दिया ऐठ कर
दम लेकर ही माना
पूरा पैसा निकाल कर
शीतला भैया ई माई के
इन्हलेर क पैसा हौ
काल रतिए से माई का
साँस बड़ी तेज फूलत हौ
आपण त काल कामे न लागल
एही वदे काल तोहर पीयल
चच्चा से उधार लैके
दवाई वदे जात हई
भैया दै द पइसवा
माई जोहत होई
चलबे क़ी नाही साले
बेवकूफ बनावत हौवे
नाही त हम जात हई
अकेल्वे पिये
कहते शीतला उसके पैसे को
लिए अकेले ही ठीके क़ी ओर
निकल गया
बलिष्ठ शीतला के मुकाबले
कमजोर धन्नू बेदम
और हताश घर क़ी ओर
चल पड़ा

घर में कदम रखते ही
माँ क़ी आवाज
उसके कानो में पड़ी
बगल में उसकी अन्व्याहता बहन
माँ को थामे थी खड़ी
आ गईला बचवा
जल्दी से इन्हेलरवा खोला
दम घुटत आ
हमारे मुंहवा में लगावा
धन्नू संज्ञाशून्य अपने
खाली हाथो के साथ
माँ को निहार रहा था
माँ क़ी आशा से भरी
निगाहों में
उसके खाली हाथो को देख
आयी हताशा को पहचान रहा था
माँ क़ी बेचैनी के साथ
क्रमशः उखड़ती साँस को
किंकर्तव्य विमूढ़ असहाय
देख रहा था
मन ही मन एक
दृढसंकल्प के साथ
पश्चाताप के औसुओं से
स्वयं को कोस और
भिगो रहा था

डा-रमेश कुमार निर्मेश

शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

लत

लत अबे रुक कहाँ जा रहा है चल निकल पैसा ठीक अभी चलना है कहते एक ने दूसरे का गला पकड़ लिया था दूसरा बड़े ही कातर स्वर में रिरिया रहा था झगड़े के मध्य हो रही बातचीत से पता चला एक का नाम था धन्नू दूसरे का शीतला काल रात धन्नू ने शीतला के साथ शीतला के पैसे से भदैनी के देशी ठीके पर छक कर दारू पिया था जीवन का असीम आनंद लिया था आज सबेरे ही पुनः शीतला से धन्नू का अमन सामना हो गया था मै भी अपनी लम्बी वाक से वापस आ रहा था धन्नू बिलबिला रहा था भैया पैसा नहीं हौ रहेन देब कौनो और दिन तोहके पिया देब ई जेब में तो पैसा दिख रहा है साले हमको बेवकूफ बना रहा है चल चल कहते शीतला ने अपने मजबूत हाथो से जबरन धन्नू के हाथों को रख दिया ऐठ कर दम लेकर ही माना पूरा पैसा निकाल कर शीताला भैया ई माई के इन्हालेर क पैसा हौ काल रतिए से माई का साँस बड़ी तेज फूलत हौ आपण त काल कामे न लागल एही वदे काल तोहर पीयल चच्चा से उधार लैके दवाई वदे जात हई भैया दै द पइसवा माई जोहत होई चलबे क़ी नाही साले बेवकूफ बनावत हौवे नाही त हम जात हई अकेल्वे पिये कहते शीतला उसके पैसे को लिए अकेले ही ठीके क़ी ओर निकल गया बलिष्ठ शीतला के मुकाबले कमजोर धन्नू बेदम और हताश घर क़ी ओर चल पड़ा घर में कदम रखते ही माँ क़ी आवाज उसके कानो में पड़ी बगल में उसकी अन्व्याहता बहन माँ को थामे थी खड़ी आ गईला बचवा जल्दी से इन्हेलरवा खोला दम घुटत आ हमारे मुंहवा में लगावा धन्नू संज्ञाशून्य अपने खाली हाथो के साथ माँ को निहार रहा था माँ क़ी आशा से भरी निगाहों में उसके खाली हाथो को देख आयी हताशा को पहचान रहा था माँ क़ी बेचैनी के साथ क्रमशः उखड़ती साँस को किंकर्तव्य विमूढ़ असहाय देख रहा था मन ही मन एक दृढसंकल्प के साथ पश्चाताप के औसुओं से स्वयं को कोस और भिगो रहा था डा-रमेश कुमार निर्मेश

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

गंगा



गंगा का निर्जीव शरीर

सफ़ेद कफ़न में लपेटा जा रहा था

मै भी उसकी शवयात्रा में

जाने के निमित्त वहां पहुच चुका था

उसकी पत्नी बच्चों के साथ

दहाड़ मार कर रो रही थी

लोगो के बीच में तरह तरह क़ी

बाते हो रही थी



एक कह रहा था

बेचारा रात भर तो रिक्शा चलाता

दिनभर ऊ सहबवा के बंगला में

सरकारी नौकरी के लालच में खटता

आखिर एक गरीब का

शरीर कितना सहता

यही से एका ई हाल भवा

और हार्टफेल होई गवा



मौन मेरे जेहन में

सप्ताह पूर्व क़ी बाते

एकाएक पुनः ताजी हो गयी थी

मेरे अशांत मन को

एकदम मंथित कर रही थी

जब भीषण गर्मी और उमस में

नंगे बदन गंगा

एक मैला गमछा लपेटे था

अपने साहब के बगीचे में

तेजी से फावड़ा चलाये जा रहा था

जबकि बंगले के अन्दर

ए सी धुआंधार चल रहा था

यह देख में हैरान था

क़ी अभी कल ही तो वह

तीव्र बुखार के साथ

मेरे पास दावा के लिए आया था

फिर आज इस भीषण तपिश में

क्यों इस तरह कार्यरत था

मेरे पूछने पर उसने बताया कि

भैया साहेब कहिन है कि

प्याज के रोपाई का समय

निकला जा रहा

गंगा जल्दी से खेतवा तैयार कर

बेहन का जुगाड़ करा



बेहन भी जुगाड़ करने के

उसके साहेब के फैसले पर

पता नहीं क्यों और क्या

में सोच रहा था

अंत में निरुत्तर

आगे बढ़ गया था



पिछले आठ सालों से

उस साहेब के सरकारी

नौकरी के आश्वासन पर

गंगा दिन भर अपने

उस तथाकथित साहेब के

बंगले पर खटता रहा

अपने परिवार के भरण पोषण के लिए

रात में रिक्शा चलाता रहा

अपनी संभावनाओं से

भरी जवानी को

सुखद बुढ़ापे कि चाह में

तबियत से खोता रहा



क्रमशः अधेड़ हो रहे

उस मुर्ख को शायद अपनी

मूल्यवान जवानी कि कीमत का

अहसास नहीं था

कल यदि बुढ़ापे में

माना कुछ पा ही लिया तो

क्या उसके जवानी के दिन

वापस आ जायेंगे

यह भी सोचा नहीं था



अक्सर तबियत

उन्नीस बीस होने पर

मेरे घर के बाहर

मेरे आने कि प्रतीक्षा करता

आने पर मेरा उससे

हाल चाल होता

हर बार मुख्य बीमारी के दवा के साथ

ताकत के गोलियों क़ी

उसकी मांग होती

मेरे पैसा न लेने के कारण

मेरे लिए खटने क़ी

उसकी चाह हमेशा होती

जो कभी पूरी नहीं होती



जब कभी बाहर उससे

उसके रिक्शे के साथ

मेरी मुलाकात होती

भैया आवा कहाँ चली

बस यही उसकी

आवाज होती



एकदिन आखिर मैंने

उससे पूछ ही लिया था

गंगा आखिर कब तलक

वांछित नौकरी के लिए

इस तरह जीवन से

जद्दोजहद जारी रहेगी

सुखमय भविष्य के लिए

आशाओं और संभावनाओं से भरी

वर्तमान पीड़ित और

अपमानित होती रहेगी



बोला भैया

आप ही के बताये

कर्मन्येवा अधिकारेस्तु

मन फलेषु कदचिना के

रास्ते पर ही तो चल रहा था

निरुत्तर आज में

उसके गीता श्लोक क़ी

उक्त भौतिक व्याख्या का

एक ओर जहाँ दुखद परिणाम

देख रहा था

वही दूसरी ओर

उसके साथ अपने आप पर भी

खीज रहा था



डा. रमेश कुमार निर्मेश

गंगा



गंगा का निर्जीव शरीर

सफ़ेद कफ़न में लपेटा जा रहा था

मै भी उसकी शवयात्रा में

जाने के निमित्त वहां पहुच चुका था

उसकी पत्नी बच्चों के साथ

दहाड़ मार कर रो रही थी

लोगो के बीच में तरह तरह क़ी

बाते हो रही थी



एक कह रहा था

बेचारा रात भर तो रिक्शा चलाता

दिनभर ऊ सहबवा के बंगला में

सरकारी नौकरी के लालच में खटता

आखिर एक गरीब का

शरीर कितना सहता

यही से एका ई हाल भवा

और हार्टफेल होई गवा



मौन मेरे जेहन में

सप्ताह पूर्व क़ी बाते

एकाएक पुनः ताजी हो गयी थी

मेरे अशांत मन को

एकदम मंथित कर रही थी

जब भीषण गर्मी और उमस में

नंगे बदन गंगा

एक मैला गमछा लपेटे था

अपने साहब के बगीचे में

तेजी से फावड़ा चलाये जा रहा था

जबकि बंगले के अन्दर

ए सी धुआंधार चल रहा था

यह देख में हैरान था

क़ी अभी कल ही तो वह

तीव्र बुखार के साथ

मेरे पास दावा के लिए आया था

फिर आज इस भीषण तपिश में

क्यों इस तरह कार्यरत था

मेरे पूछने पर उसने बताया कि

भैया साहेब कहिन है कि

प्याज के रोपाई का समय

निकला जा रहा

गंगा जल्दी से खेतवा तैयार कर

बेहन का जुगाड़ करा



बेहन भी जुगाड़ करने के

उसके साहेब के फैसले पर

पता नहीं क्यों और क्या

में सोच रहा था

अंत में निरुत्तर

आगे बढ़ गया था



पिछले आठ सालों से

उस साहेब के सरकारी

नौकरी के आश्वासन पर

गंगा दिन भर अपने

उस तथाकथित साहेब के

बंगले पर खटता रहा

अपने परिवार के भरण पोषण के लिए

रात में रिक्शा चलाता रहा

अपनी संभावनाओं से

भरी जवानी को

सुखद बुढ़ापे कि चाह में

तबियत से खोता रहा



क्रमशः अधेड़ हो रहे

उस मुर्ख को शायद अपनी

मूल्यवान जवानी कि कीमत का

अहसास नहीं था

कल यदि बुढ़ापे में

माना कुछ पा ही लिया तो

क्या उसके जवानी के दिन

वापस आ जायेंगे

यह भी सोचा नहीं था



अक्सर तबियत

उन्नीस बीस होने पर

मेरे घर के बाहर

मेरे आने कि प्रतीक्षा करता

आने पर मेरा उससे

हाल चाल होता

हर बार मुख्य बीमारी के दवा के साथ

ताकत के गोलियों क़ी

उसकी मांग होती

मेरे पैसा न लेने के कारण

मेरे लिए खटने क़ी

उसकी चाह हमेशा होती

जो कभी पूरी नहीं होती



जब कभी बाहर उससे

उसके रिक्शे के साथ

मेरी मुलाकात होती

भैया आवा कहाँ चली

बस यही उसकी

आवाज होती



एकदिन आखिर मैंने

उससे पूछ ही लिया था

गंगा आखिर कब तलक

वांछित नौकरी के लिए

इस तरह जीवन से

जद्दोजहद जारी रहेगी

सुखमय भविष्य के लिए

आशाओं और संभावनाओं से भरी

वर्तमान पीड़ित और

अपमानित होती रहेगी



बोला भैया

आप ही के बताये

कर्मन्येवा अधिकारेस्तु

मन फलेषु कदचिना के

रास्ते पर ही तो चल रहा था

निरुत्तर आज में

उसके गीता श्लोक क़ी

उक्त भौतिक व्याख्या का

एक ओर जहाँ दुखद परिणाम

देख रहा था

वही दूसरी ओर

उसके साथ अपने आप पर भी

खीज रहा था



डा. रमेश कुमार निर्मेश

शनिवार, 8 सितंबर 2012

नदी डूब गयी: आज का युधिष्ठर

नदी डूब गयी: आज का युधिष्ठर: आज का युधिष्ठर घाट क़ी सीढियों पर उदास बैठे राजू के सामने सारा अतीत घूम रहा था बापू क़ी मौत के बाद या बापू के रहते हुए भी मामा ने किस तरह प...

आज का युधिष्ठर

आज का युधिष्ठर

घाट क़ी सीढियों पर
उदास बैठे राजू के सामने
सारा अतीत घूम रहा था
बापू क़ी मौत के बाद
या बापू के रहते हुए भी
मामा ने किस तरह
पूरे परिवार को संभाला था
उसके सभी बहनों का
विवाह करते करते
बापू तो चल बसे थे
राजू के लिए कुछ खास
नहीं  छोड़ गए थे

दिन बीतते गए
राजू भी विवाह के योग्य हुआ
विवाह के पूर्व मामा ने
उसके टूटे फूटे  घर को  बनवाने का
फैसला लिया

सीमेंट लेन के लिए
हजार रूपये राजू को दिया
स्वयं ईट लेन के लिए
भत्ते का रुख किया
बीच में पुराने यारों ने हाथ पकड़
राजू को न चाहते हुए
फड पर बैठा लिया
महाभारत के  युधिष्ठर  के निति का
दुहाई दिया
उसकी लगभग छूट  चुकी
जुए क़ी आदत ने भी जोर मारा
राजू फड पर बैठा
शीघ्र ही हार चुका था रुपया सारा
उसके पाव तले का  जमीन  खिसक गया था
जितने वाला रुपया लेकर
आगे चल दिया था
हताश राजू भी उसके
पीछे पीछे चल दिया था

बिना परिश्रम
अपने रुपये को बढ़ने के चाह ने
राजू को आज कितना
दीन और हीन बना दिया था
यहाँ तक क़ी उसे जुए क़ी फड तक
एक बार पुनः पंहुचा दिया था
कैसे करेगा वह देवता समान
अपने मामा का  सामना
यह सोच वह एकदम से
घबरा गया था
मामा के विश्वास को
एक बार पुनः चोट पहुचाने का गम
उसे भीतर तक साल रहा था
सोच रहा था कि
किसी तरह यह पैसा इस बार
वापस आ गया कही
तो हे भगवन आपकी कसम
अब जुए कि ओर कभी
वह ताकेगा नहीं
चलते चलते आखिर मयखाने में
उससे मुलाकात हुई
राजी कि बाछें खिल गयी
राजू अपने पैसे कि वापसी कि उम्मेद्मे
उससे एक बार और खेलने कि
बार बार अपील कि
अबे खेल ले भैया खेल ले भैया
कि अनेक विनती कि
अंततः नशे में टुन्न होने पर
वह खेलने के लिए पुनः
तैयार हो गया था
शायद भाग्य को भी
राजू कि दशा पर तरस आ गया था
ईस बार
राजू के पत्ते पड़ने लगे थे
एक एक कर उसके रुपये
वापस आने लगे थे

पाँच सौ रूपये ऊपर से
और भी आ गे थे
धीरे धीरे लोग घर जाने लगे थे
उसमे से दो सौ राजू ने उसे और दिया
साथ ही वापस जाकर और
पीने का सलाह दिया
बाकी पैसे लेकर उसने स्वयं
बाजार का रुख किया

रास्ते में राजू
सोचता जा रहा था
कैसी मूर्खता और कैसी विडम्बना है कि
अपने पैसा जब अपने पास था
उसके वेलू  और उसकी अस्मत का
उसे अहसास नहीं था
देखते ही देखते जब वह
दूसरे कि जेब में जाने लगा था
उसकी कीमत का
उसे भास हुआ था

जीता तो कई बार था वह
मगर इस जीत पर
आज का वह युधिष्ठर
बहुत ही इतरा रहा था
मूर्ख अपने ही पैसे क़ी वापसी पर
आज जश्न मना रहा था
सोच रहा था कि
कितनी मारकाट के बाद
महाभारत के युधिष्ठर  का
सम्मान बचा रहा था
उसने तो अपने सम्मान को बस
चुटकियों  में ही वापस
हासिल कर लिया था
तुलना करने पर वह अपने आप को
द्वापर के युधिष्ठर  से श्रेष्ट पा रहा था
आज के बाद उसने फड पर
न बैठने कि कसम ली
हमेशा  के लिए जुए को
जैरामजी की कही

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

मेरी अमरनाथ यात्रा


अपने परमप्रिय
राजकुमारजी के अहवाहन पर
छोटू और रामजी के साथ
मै निकल पड़ा
बाबा अमरनाथ क़ी यात्रा पर
देखने आस्था का सैलाब
जहाँ भक्ति क़ी गंगा का
बह रहा था प्रवाह अविरल अबाध
कशी से जम्मू व पुनः
जम्मू से पहलगाम
जहाँ जमीं को छू रहा था
निर्मल साफ असमान
बर्फ क़ी श्वेत चादर लपेटे
प्रकृति कर रही थी मानो
हमारा अभिनन्दन
वर्ष बिन्दुओं को अंचल में भरे
बादलो के समूह कर रहे थे
हमारा स्वागतम

क़ानूनी औपचारिकताओं के
उपरांत  बाबा धाम तक क़ी
३६ किमी क़ी चढ़ाई
चंदंबदी से जब हुई प्रारंभ
चरो और गूँज रहा था
बाबा का जयघोष बम बम
हिल गया था तन का रोम रोम
देख पिस्सू टॉप क़ी चढ़ाई दुर्गम
पर वह ऋ आस्था क्या दृश्य था मनोरम
कही दीखता था व्यक्ति का विश्वास
तो कही जय भोले के उदघोष से
ही किसी का चल रहा था
स्वास प्रश्वास

अकस्मात हो गाये हम
स्तब्ध ऊपर से आती देख दो लाश
मगर भक्तो के अविचल समूह
करते बम बम भोले का जयघोष
आगे बढ़ रहा था अनिमेष
इस दुरूह चढ़ाई के बाद
एक स्वर्ग सा दृश्य दिखा मनोरम
पाता चला यही है शेषनाग स्वर्गाश्रम
विशालतम पर्वत श्रृखलाओं के मध्य
गहरे हरे रंग का सरोवर
दूर तक फैली शेषनाग
झील झर झर
लगा जैसे प्रकृति ने रख दी है
अपनी  सुन्दरता यहाँ निचोड़कर

भाव विभोर मन वह
कुछ पल ठहर जनि को व्यग्र
दिखा पर साथियों के साथ को मै
वचन वद्ध था
आगे शिविर में लेकर रात्रि विश्राम
दूसरे दिन पंचतरणी क़ी ओर
चल पड़ा बीच बीच में
करते हुए आराम

आगे बर्फ के विशालतम
ढलुआ ग्लेशियरों पर चलते हुए
पल पल मृत्यु से साक्षात्कार करते हुए
दृढ विश्वास और असीम
आस्था के वशीभूत
अधीर मन आगे बढ़ता रहा
आखिर पञ्चतरणी के जल से
आचामनित हो किया तन में
एक नयी उर्जा का अहसास लगा

सफल हो रहा था
हमारा ये प्रवास
बीच बीच में लंगर तमाम चल रहे थे
जो यात्रियों क़ी सेवा कर
अपने ही ढंग से पुण्य कमा रहे थे
हमने भी वह नाश्ता कर
एक चाय पिया
पञ्च तरणी से विदा लेकर
मुख्य बाबा धाम को चल दिया
दो दो फुट के गहरे
संकरे कंकरीले और पथरीले
ऊंची पहाड़ी रास्ते पर
रखते हुए डग
कट रहे थे एक एक पग
उसीमे एक ओर जहाँ
चल रही थी घुड़सवारों क़ी
दो दो लडिया
वही निर्बाध पैदल के साथ
चल रही थी तमाम पालकियां
एक ओर जहाँ पर्वतों क़ी
विशाल ऊंचाइया
दूसरी ओर मृत्य का अहवाहन
करती गहरी खाइयाँ

खैर किसी तरह बाबा बर्फानी का
करते हुए जयकारा
धाम में पहुँच गया
मेरा समूह सारा
धाम का विहंगम दृश्य देखकर
लगा इश्वर ने रख दी है
अपनी सर्वोत्तम कृतियाँ
यहाँ निचोड़कर

चारो ओर हिम्ग्लेशियर और
उसके मध्य हिमाच्छादित धाम
जहाँ हिम शिवलिंग के दर्शन हेतु
लगा हुआ था जाम
पूजन सामग्री और वक्ती टेंट से
पाता हुआ था धाम सारा
भीषण सर्दी को मात दे रही थी
बाबा का जयकारा
जैसे ही स्नान कर
दर्शन के निमित्त तैयार हुआ
एक अजीब शक्ति तन में
संचारित हुआ
लाइन में लगते ही हम पा गए
पवित्र चिरपरिचित कबूतरों के दर्शन
बाग बाग हो गया मन
प्रफुल्लित हो चला सारा तन
बाबा बर्फानी के दिव्य
दर्शन के उपरांत
क्रमशः शाम ढल रहा था
पर ८ बजे भी बाबा के दरबार में
सूर्य दर्शन दे रहा था
जब मौसम का मिजाज बिगड़ते देखा
हमने बाबा धाम में ही
रात्रि विश्राम का निर्णय लिया

साथ में लाये कुछ नाश्ते के बाद
सोने के निमित्त बर्फ पर ही बने
एक टेंट को हायर किया
दूसरी सुबह तैयार होकर
१४ किमी बालताल के
दुर्गमतम रास्ते से
बाबा को पुनः प्रणाम कर
विदा लिया

इस रास्ते क़ी भी
असंख्य कठिनाइयों और पीडाओं से
हमारा साक्षात्कार हुआ
पल पल पर मौत का
अहसास हुआ
मौत और जिन्दगी के इस
प्रायोजित खेल से सच मानिये
मेरा दिल बाग बाग हो गया
जिंदगी कितनी कीमती है
इस बात का अहसास हो गया

आज भी भोला मेरा मन
समझ नाही पाता
इतनी परेशानियों के बीच भी
हमें यह धाम क्यों है भाता
शायद इसका कारण
विज्ञानं पर आधारित हमारी
संस्कृत क़ी गहरी जड़े हो
जिस पर आस्था क़ी विजय हो
विज्ञानं पर आस्था का
अटल विश्वास हो
या राष्ट्रीयता से जोड़ता
विज्ञानं पर आस्था का प्रभाव हो
जिसे बस और केवल बस
प्रत्यक्ष ही महसूस किया जा सकता है
कंक्रीट के जंगलो में बैठ कर
प्राकृत के इस अनूठे उपवन
भय और भक्ति के संगम का
विश्लेषण नहीं किया
जा सकता है

सामान्य सी मांग

पापा पापा
पिछली बार आपने वो
बिजलीवाली रेलगाड़ी हमको
दिलाने को कहा था
कहते कहते सोनू पापा को
एक खिलौने क़ी दुकान पर
बड़ी आशा से लेकर
खड़ा हो गया था
में भी जमाष्ट्मी क़ी कुछ
खरीददारी हेतु
बाजार गया था

नहीं बेटा
यह बिजलीवाली रेलगाड़ी
बड़ी खतरनाक होती है
जरा सी चूक पर
जान खतरे में पड़ सकती है
तब पापा वो बैटरी वाली ही
दिला दो
बिरजू सामू और गुड्डू
सबके पास है वो
सब उसे चला कर इतराते है
दिखा दिखा कर
बहुर भाव खाते है
मेरे पास रेलगाड़ी न होने से
मेरा सब बहुत उपहास उड़ाते है

बेटा वो भी बेकार है
अभी देखे नहीं उस दिन टी वी में
दिखा रहा था
की बैटरी फटने से एक बालक
किस तरह मौत क़ी गोद में
समा गया था
अपने प्यारे सोनू को
कैसे जानबूझ कर
मौत में मुंह में धकेल सकता था
हाँ देखो प्लास्टिक की यह
रेलगाड़ी ले लो
प्लास्टिक से भी तो पापा
सब बताते है बहुत प्रदुषण फैलता है
नहीं पापा वह भी रहने दो

सोनू को एकाएक
घर से चलते समय
पापा की माँ से पैसे को लेकर
हो रही जिकजिक का
ध्यान आ गया था
पापा की विपन्न आर्थिक स्थिति ने
सोनू को अब और
मजबूत कर दिया था
पुनः स्थिति को सोनू ने ही सम्हाला
बाल सुलभ चंचलता से
रेलगाड़ी की बात को टाला
पापा छोडो व्यर्थ में पैसा
बर्बाद करने से क्या फायदा
तीन चार साल ही तो
और है बचपन के
कट जायेगा बाकायदा
सच पापा आप मुझे
कितना प्यार करते है
मेरी जान का आप
कितना ख्याल रखते है
औरो के पापा तो बस लगता है
प्यार का नाटक करते है

महेश इस अवांछित स्थिति से
कम्पित हो गया था
अपनी विपन्नता पर मन ही मन
स्वयं को कोस रहा था
उसे यह आभास हो चला था कि
सोनू भी उसकी माली हालत से
अब वाकिफ होकर
अपने अरमानो को तिलांजलि देकर
अपने बचपन को नकारते
उलट उसे ही सांत्वना दे रहा था

महेश अभी तक जहाँ
उसकी मांग को टालने में
आपने आप को सफल समझ रहा था
सोनू के विश्लेषण से
अब वह व्यथित हो रहा था
उसने विकल्प के रूप में
जितने भी प्रस्ताव
सोनू को सुझाया
सबका समुचित निकास
सोनू से पाया

मध्यवर्गीय परिवार का
मुखिया महेश
बच्चे कि इस अप्रत्याशित सोच पर
स्तब्ध हो गया था
जुलाई के महीने में वैसे ही
हाथ तंगी में हो रहा था
ऊपर से दिन पर दिन
बढ़ती मंहगाई ने
कमर तोड़ कर रख दिया था

नव धनाड्यों के बच्चों में
एक ओर जहाँ
मंहगे से मंहगे खिलौने के लिए
आपस में प्रतियोगिता चल रही थी
वही अपने बच्चे की एक
सामान्य सी मांग भी
पूरी न कर पाने की कसक
उसके सामने
अपराधबोध बन डटी थी

डा-रमेश कुमार निर्मेश Attachments may be unavailable. Learn more papa.jpg

बुधवार, 20 जून 2012

दूसरे गाँधी

दूसरे गाँधी और शूल

तपती जेठ की
दोपहरी थी
अपने शीर्षतम  बिंदु  पर
गरम हवा चल रही थी
सूरज क़ी तीव्रतम तपिश से
बदन तप रहा था
तन का एक एक
रोम झुलसा  जा रहा था

परशान परिसर में
एक वृक्ष क़ी छाया पकड़
मै आराम फरमाने को
उत्सुक  और व्यग्र

देख रहा था
अपनी अतिरेक हरियाली से
पूरे शहर को
जो कभी देती थी पोषण
बनाये रखती  थी
पर्यावरण का संतुलन
परिसर क़ी उस हरियाली का 
हो रहा था तेजी से शोषण

देख रहा था
नित एक नए भवन क़ी
नीव पड़ते हुए
महामना क़ी बगिया को
कंक्रीट के जंगल में
बदलते हुए
सामने ही खेल के एक मैदान में
एक नूतन भवन सम्पूर्ण
साकारता क़ी और अग्रसर था
तेजी से वह काम
चल रहा था

बेदम कर देने वाली
इस जलती धूप में
दो तीन आधुनिक विशाल और
विकासशील भारत क़ी  स्यामवार्ण 
मगर सुगढ़ ललनाये 
गोद में इस आर्यावर्त के 
भविष्य  को छिपाए
नंगे पाव ईट ढो रही थी
शिक्षा के मंदिर में
बरबस शिक्षविदो के सर्व शिक्षा
अभियान के दावे क़ी
हसी उड़ा रही थी

साथ ही बड़े हसरत से
स्कूटी पर सवार
पूरे बदन को ढके
जींस पैंट के साथ
शानदार काला चश्मा चढ़ाये
इसी आधुनिक भारत क़ी ही
आधुनिक ललनाएं
एक मोहक खुशबू बिखेरते हुए
एक  एक कर
उनके पास से गुजरती जा रही थी

स्वयं को कोसते हुए
गर्मी से निढाल हो कभी
वह बैठ जाती
कभी ठीकेदारों के डर से
बिना सुस्तायें काम पर
पुनः लग जाती

संभवतः
उन्हें इंतजार किसी तरह
दिन ढले
गर्मी से रहत मिले
साथ ही पूरी मजदूरी क़ी चाह
पेट भरने के आस लिए वह भी
इसी आधुनिक आर्यावर्त क़ी ललनाये थी
मगर भारतीय वांग्मय और
सनातनी संस्कृति के दृष्टिकोण से
एक और दूसरे गाँधी को अपने उद्धार हेतु
अपने आंचल में छिपाए
शायद अपने पिछले जन्मो के
कर्मो का फल ही तो
भोग रही थी
डा रमेश कुमार निर्मेश





शूल
 एक एक कर खेत के
एक एक टुकड़े बिकते जा रहे थे
खेतों की जगह
कालोनी बसते जा रहे थे
अभी पिछले साल तक रम्भू
जिसे सीवान कहता था
आज उदास नजरो से उसी में अपना
बाग ढूड रहा था
काल ही तो वह अपने
बीच में फसे अंतिम खेत क़ी
रजिस्ट्री  कर आया था
रास्ता उसका बन्द कर
गाँव के विकास के नाम पर
औने पौने दम पर
भूमाफियाओं ने हड़का कर
उस बची जमीन को
उससे लिखवाया था

हताश रम्भू
अपने एकमात्र बचे
कच्चे मकान के सामने बैठा
अपने खेत खलिहान  और सीवान को
तेजी से कंक्रीट के जंगलो में
बदलते देख रहा था
इन आधुनिक जंगलो को ही
विकास कहते है
शायद यही सोच रहा था
रह रह कर उसे अपने 
बचपन और जवानी के
दिन याद आ रहे थे
किस तरह गाँव के  बच्चे
दूर खेत खलिहान बाग बगीचों  
और सीवानो में इतराते थे

कुछ समय के बाद
गाँव का नामो निशान मिट गया
उसकी जगह एक कंक्रीट का जंगल
अशोकपुरम के नाम से बस गया

रम्भू अब बूढ़ा हो चला था
जमीन बेचने के एवज में
मिले पैसो से बच्चों  का समय
दारू मुर्गे में जम कर कट रहा था
गाँव निठल्लों और कामचोरों से
भर गया था 

जीवन यापन का
कोई और तरीका नहीं देख
आज रम्भू क़ी पत्नी रामरती
अपनी बहू के साथ
कभी जिसकी मालकिन थी
आज उसी कालोनी में
घूम घूम कर
कही बर्तन माज रही थी तो
कही झाड़ू पोछा लगा रही थी
किसी तरह  उन घरो से मिले
जूठे खानों और  तुक्ष पैसों से
अपने परिवार का
भरण पोषण कर रही थी

विकास क़ी इस विडंबना  पर
रामरती हताश सोचती
कि कल तलक उसके यहाँ
ताजे साग सब्जीयों के लिए
जो लाइन लगाते थे
आज उन्ही के झूठे बचे भोजन से
उसके पेट भरते है
थोड़ी सी  देर हो जाने पर
उनकी बीबियों के ताने
शूल बन ह्रदय में चुभते थे

डा- रमेश कुमार निर्मेश
 

सोमवार, 11 जून 2012

शूल

शूल एक एक कर खेत के एक एक टुकड़े बिकते जा रहे थे खेतों की जगह कालोनी बसते जा रहे थे अभी पिछले साल तक रम्भू जिसे सीवान कहता था आज उदास नजरो से उसी में अपना बाग ढूड रहा था काल ही तो वह अपने बीच में फसे अंतिम खेत क़ी रजिस्ट्री कर आया था रास्ता उसका बन्द कर गाँव के विकास के नाम पर औने पौने दम पर भूमाफियाओं ने हड़का कर उस बची जमीन को उससे लिखवाया था हताश रम्भू अपने एकमात्र बचे कच्चे मकान के सामने बैठा अपने खेत खलिहान और सीवान को तेजी से कंक्रीट के जंगलो में बदलते देख रहा था इन आधुनिक जंगलो को ही विकास कहते है शायद यही सोच रहा था रह रह कर उसे अपने बचपन और जवानी के दिन याद आ रहे थे किस तरह गाँव के बच्चे दूर खेत खलिहान बाग बगीचों और सीवानो में इतराते थे कुछ समय के बाद गाँव का नामो निशान मिट गया उसकी जगह एक कंक्रीट का जंगल अशोकपुरम के नाम से बस गया रम्भू अब बूढ़ा हो चला था जमीन बेचने के एवज में मिले पैसो से बच्चों का समय दारू मुर्गे में जम कर कट रहा था गाँव निठल्लों और कामचोरों से भर गया था जीवन यापन का कोई और तरीका नहीं देख आज रम्भू क़ी पत्नी रामरती अपनी बहू के साथ कभी जिसकी मालकिन थी आज उसी कालोनी में घूम घूम कर कही बर्तन माज रही थी तो कही झाड़ू पोछा लगा रही थी किसी तरह उन घरो से मिले जूठे खानों और तुक्ष पैसों से अपने परिवार का भरण पोषण कर रही थी विकास क़ी इस विडंबना पर रामरती हताश सोचती कि कल तलक उसके यहाँ ताजे साग सब्जीयों के लिए जो लाइन लगाते थे आज उन्ही के झूठे बचे भोजन से उसके पेट भरते है थोड़ी सी देर हो जाने पर उनकी बीबियों के ताने शूल बन ह्रदय में चुभते थे

मंगलवार, 15 मई 2012

रिश्ते कि सच्चाई

निशंक के असमय देहावसान के उपरांत आज श्रद्धा पहली बार मायके जाने के लिए तैयार हो रही थी बच्चो को स्कूल भेज कर रह रह कर रो रही थी अभी कितने ही दिन हुए थे उसे इस घर में आये पराये हो गए थे अपने अपनों को हुए पराये निशंक के अथाह प्रेम के सागर में पाँच वर्ष तक वह डूबती उतराई रही दो दो प्यारे बच्चो क़ी माँ बन स्वाभिमान से इतराई रही काल ने कब दबे पाव पता ही नहीं चला घर में प्रवेश किया एक वर्ष के भीतर ही सास और ससुर का उठ गया था साया किसी तरह निशंक के साथ अपनी गृहस्थी को सभाले वह अहिस्ता आगे बढ़ती रही तभी एक सड़क हादसे में निशंक भी चल बसा पता नहीं किस मनहूस क़ी नजर उसके खेलते खाते बगिया में आग लगा गया किसी तरह बच्चो को देख वह जीने का एक और हौसला पालने लगी थी वरना वक़्त ने उसको तोड़ने में कोई कसर ही नहीं छोड़ी थी याद था किस तरह भैया ने उसे सीने से लगाते हुए विह्वल हो उसे शीघ्र घर आने के लिए बोला था दिलासा देते हुए भाभी ने भी उसे पैर फिराने के लिए कहा था उसी रस्म को पूरा करने हेतु वह किसी तरह जैसे ही मायके पहुंची काल बेल दबाने के लिए जैसे ही उद्यत हुई घर के अन्दर से भाभी कि आवाज आई आज ही मुझे भी अपनी मम्मी को देखने घर जाना था तो इसी दिन इन महारानी को भी मायके आना था अपना तो सब कुछ लुटवा ही चुकी है भैया ने भी आगे जोड़ा कि अब पता नहीं हमारा क्या करने पर तुली है कितने दिनों से अपनी कार बदलना चाह रहे है पर सफल नहीं हो पा रहे है हम तो वैसे ही इस कदर तंगहाली में चल रहे है पता नहीं कुछ मांग बैठी तो हम क्या कहेगे इसके बाद श्रद्धा कुछ और सुनने का सहस नहीं कर पाई भ्रम में ही सही टूटते रिश्ते को बचाने हेतु अपने घर वापस चली आयी भरभराते आंसुओं को पलकों में ही रोका भैया को फोन कर बोला आपने कितने प्रेम से बुलाया था पर क्या करे मेरी भी तबियत अभी ठीक नहीं है सोनू भी बीमार चल रहा उसको भी कल से आंव पड़ रही है वैसे आपको परेशान होने क़ी जरूरत नहीं देखती हू जैसे ही समय मिलेगा मै दो मिनट के लिए ही सही आप सबकी मर्यादा हेतु घर आ जाउंगी उस दिन भाभी भी काफी दुखी थी उनसे भी कहियेगा मेरे लिए कदापि परेशान न हो इन रिश्ते कि सच्चाई के बीच जो भी हो इस जहर को मै ही पीउंगी अपने बच्चो कि खातिर मै तो जीऊँगी ही जीऊँगी

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

क्या हमें भी अपने वजूद खोजने होंगे।

कार्यालयी दिवस का
अंतिम पहर
शनै शनै हो रहा था सहर
भर दिन कि व्यस्तता से थका मांदा
आज भीड़ हो गयी थी
और दिनों से कुछ ज्यादा
जम्हाई लेते हुए मै जैसे ही
काउंटर बंद करने चला
एक कातर असहाय आवाज
एकाएक कानो में पड़ा

बचवा
तनी देर और रुक जा
बीस रुपया भाडा खर्च
कई बड़ी दूर से आवत हिजा

सामने दिखा
एक कृशकाय वृद्धा का आगमन
पता चला साथ मे
उसका पुत्र भी था मदन
मैंने कहा माताजी जल्दी आकर
अपने फॅमिली पेंशन का फारम भरो
अपने पेंशन का पैसा लेकर
जल्दी से चलते बनो
वर्ना मुझे खजाना बंद करने मै
आज फिर देर हो जाएगी
त्यौहार के मद्देजनर
आज फिर मार्केटिंग नहीं हो पायेगी
पत्नी कल कि तरह आज भी
नाराज हो जाएगी

सुनते ही पुत्र मदन ने फटाफट
उसका फार्म भरा
झट से प्राप्त रुपये को फुर्ती से गिन
अपने जेब मै धरा
उसकी माँ बोली बचवा
तनी हमूं के पइसवा ता दिखैते
कम से कम दवईया वदे हमका
पांच सौ रुपया दी देते
वर्ना घर गैला पर एको रुपया
तोहार दुल्हिन से पाइब
बचवा बतावा
हमार दवईया कैसे किनैब

माई तोहरा से
पैसा कैसे गिनल जाई
तोहरा से कबहू सभल पाई
चला घर देखल जाई

वृद्धा दबी जबान से बुदबुदाने लगी
वाह रे बचवा हम तोहके बचपन मै
पैसवे से गिनती सिख्वाले रहली
नाक बहाय के जब तू घूमत रहला
तो पोछे सलीके भी हमे सिखौले रहली
आज तू हमके सलीका सिखैबा
पाथर पर दूब जमइबा

ढेर बतियाव जिन
एहिजे हमरे इज्जत कबाड़
बनाव जिन
देखत है को त्यौहार सर पे आयी बा
बब्लुआ के मम्मी के धोती कपडा और
लइकन के कपड़ा कीने के बाकि बा
तोहरा दवैये के सूझल बा
पता नहीं अब जी के का कियल जाई
चला काढ़ा पानी पी के अभही कम चली
अगले महिना कुछ देखल जाई

सरबौला हमही के मुवात हौ
देखा एके बड़े बाबू तनी
बूझत नइखे कि हमारे मुवला पर कैसे
केकरा भरोसे एहिजे नोटिया गिनी
वृद्धा अश्रुपूरित नेत्रों से कभी हमें
कभी मदन को देख रही थी
हर महिनवे मै कुछ कुछ
बहाना बनाय कुल पैसवे हड़पने की
बात हमसे कह रही थी
दमे के प्रकोप के कारण
डाक्टर के बताये कुछ जाँच को
कई महीने से कराने को सोच रही थी
एक महिना और कैसे बीती
सोंच के काप रही थी
अपनी असमर्थता पर
आंसुओं को आँख के कोरो में
रोके रो रही थी
मरते समय मदन के बाबू द्वारा
मदन को दी जाने वाली सीख के बारे मै
ही वह शायद सोच रही थी

तभी मेरे पियन पुन्वासी की आवाज ने
मेरे ध्यान को भंग किया
साहब समय होई गवा कहकर
उसने काउंटर बंद कर दिया
मै निर्विकरवत मौन
पत्नी की नाराजगी से भयमुक्त
बंद खिड़की के पल्ले को
एकाग्र देख रहा था
चाह कर भी मदन को उसके इस
कुकृत्य को रोक पाने का
दंश झेल रहा था
सोंच रहा था की क्या
ऐसे दिन हमें भी देखने होगे
तेजी से विलुप्त हो रहे
मानवीय मूल्यों के बीच
क्या हमें भी अपने वजूद
खोजने होंगे